उत्तरपर्व ]
* दीपदानकी महिमा-प्रसंगमे जातिस्मरा रानी ललिताका आख्यान *
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पिगल नामके एक तपस्वी मधुराम आकर प्रवास कर रहे ये।
उन तपस्वीसे देवी जाम्बवतीने भी यही प्रश्न किया था, उस
विषयको आप सु्नें--पिगलमुनिने कहा था--ददेवि!
संक्रान्ति, सूर्यप्रहण, चन््रग्रहण, वैधृति, व्यतिपातयोग,
उत्तरायण, दक्षिणायन, विषुव, एकादशी, झुक पक्षकी
चतुर्दशी, तिथिक्षय, सप्रमो तथा अष्टमी--इन पुष्य दिनोंमें
खान कर, ब्रतपरायण स्री अथवा पुरुषको अपने आँगनके
मध्य घृत-कुम्म और जलता हुआ दीपक भुमिदेवको दान देना
चाहिये । इससे प्रदीम एवं ओजस्वी दारीर प्राप्त होती है।
राजा युधिष्ठिरने पृष्ठा - मधुसूदन ! भूमिके देवता
कौन हैं? मेरे इस संशयको दूर करें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! पूर्वकालमें
सत्ययुगके आदिमे त्रिशंकु नामका एक (सूर्यवंज्ञी) राजा था,
जो सशरीर स्वर्गकों जाना चाहता था। पर महर्षि वसिष्ठने उसे
चाण्डाल बना दिया, इससे श्रीकः बहुत दुःखी हुआ ओर
उसने विश्वामित्रजीसे समस्त वृत्तान्त कहा । इससे क्रुद्ध होकर
विश्वामित्रने दूसरी सूष्टिकी रचना प्रारम्भ कर दी । उस सृष्टम
सभी देवताओंके साथ-साथ त्रिशंकुके लिये दूसरा स्वर्ग बनाना
आरम्भ कर दिया और शूङ्गाटक (सिंघाड़ा), नारियल, कोद्रव,
कृष्पाष्ड, ऊँट, भेड़ आदिका निर्माण किया और नये सप्तर्ष
तथा देवताओंकी प्रतिमाका भी निर्माण कर दिया। उस समय
इद्रे आकर इनकी प्रार्थना की» और विश्वामित्रजीसे सृष्टि
रोकनेका अनुरोध किया तथा दीपदान करनेकी सम्मति दी । जो
परतिमा इन्होंने बनायी थीं, उनमें ब्रह्मा, विष्णु, झिव आदि
सभी देवताओंका वास हुआ और वे ही इस संसारके
प्राणियॉंका कल्याण करनेके लिये मर्व्योकमें प्रतिमाओमें
मूर्तिमान् रूपमें स्थित हुए और नैवेद्यादिकों ग्रहण करते हैं तथा
अपने भक्तोंपर प्रसन्न होकर वरदान देते हैं, वे ही भूमिदेव
कहलाते हैं। यजन् ! इसीलिये उनके सम्मुख दीपदान करना
चाहिये। भगवान् सूर्यके लिये प्रदत्त दीपकी रक्तबखसे निर्मित
यर्तिका 'पूर्णवर्ति' कहत्प्रती है। इसी प्रकार शिवके लिये
निर्मित श्वेत वस्त्रकी वर्तिका 'ईश्वरवर्ति', विष्णुके लिये निर्मित
पीत वर्की वर्तिका 'भोगवर्ति', गौरीके लिये निर्मित कुसुम
रैगके वशम निर्मित वर्तिका 'सौभाग्यवर्ति', दुगकि लिये
त्रके रैंगके समान रेंगवाले वससे निर्मित यर्तिका
'पूर्णवर्तिका' कहलाती है। ऐसे ही क्रह्माके लिये प्रदत वर्तिका
'पद्चर्ति', नागोकि लिये प्रदत्त वर्तिका 'नागवर्ति' तथा ग्रहोंकि
लिये प्रदत्त वर्तिका “ग्रहवर्ति' कहलाती है। इन देवताओंके
लिये ऐसे ही वर्तिकायुक्त दीपकका दान करना चाहिये । पहले
देवताका पूजन केके बाद बड़े पात्रमें घी भरकर दीपदान
करना चाहिये। इस विधिसे जो दीपदान करता है, वह सुन्दर
तेजस्वी विमानमें बैठकर स्वर्गमें जाता है और वहाँ प्रकयपर्यत्त
निवास करता है। जिस प्रकार दीप प्रकाशित होता है, उसी
प्रकार दीपदान करनेवाला व्यक्ति भी प्रकाशित होता है । दीपके
शिखाकी भांति उसकी भी ऊर्ध्वगति होती है । दीपक धृत या
नही । जरते हुए दीपको बुझाना नहीं चाहिये, न ही उस
स्थानसे हटाना चाहिये। दीप बुझा देनेवाला काना होता है और
दीपको चुरानेवाला अधा होता है। दीपका बुझाना निन्दनीय
कर्म है।
राजन् ! आप दीपदानके माहात्यमें एक आख्यान
सूने--किदर्भ देशमें चित्ररथ नामका एक राजा रहता था। उस
राजाके अनेक पुत्र थे और एक कन्या थी, जिसका नाम था
ललछिता। बह सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अत्वन्त सुन्दर
थी। राजा चित्ररथने धर्मका अनुसरण करनेवाले महाराज
काशिगज चारुधर्माके साध ललिताका विवाह किया।
चारधर्माकी यह प्रधान गानी हुई। यह विष्णु-मन्दिस्में सहस्नों
प्रज्वलिते दीपक प्रतिदिन जलाया करती थी । विदोषरूपसे
अश्विन-कार्तिकमें बड़े समारोहपूर्वक दीपदान करती थी। वह
चौगहो, गलियों, मन्दिरों, पीपलके वृश्चके पास, गोशाला,
पर्वतशिखर, नदीतटों तथा कुओपर प्रतिदिन दीप-दान करती
थी। एक बार उसकी सपन्नियोनि उससे पूछा--“ललिते ! तुम
दीपदानका फल हमें भी बतलओं । तुम्हारी भक्ति देवताओंके
पूजन आदिमे न होकर दीपदानमें इतनी अधिक क्यों है ?' यह
सुनकर ललिताने कहा--'सखियो ! तुमल्तरेगोंसे मुझे कोई
हिकायत नहीं है, न ही ईर्ष्या, इसलिये मैं तुमत्मेगोंसे
दीपदानका फल कह रही हूँ। ब्रह्माजीने मनुष्योंके उद्धारके
लिये साक्षात् पार्वतीजीको मद्रदेशमें शरे देविका नदीके रूपमे
पृथ्वीपर अक्तरित किया, वह पापोंका नादा करनेवाली है,
उसमें एक बार भी स्नान करनेसे मनुष्य शिवजीका गण हो जाता