काएड-१० सूछ-५ १९
२७६९. यो व आपोऽपां वत्सो३प्स्व१न्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तपति सृजामि तं
माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो योरस्मान् दष्ट यं वयं द्विष्मः ।
तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥१७ ॥
हि अप् प्रवाहो ! आपका जो वत्स (विकासमान अंश) है । जो रसं के बीच यज्ञादि में देवों के लिए यजनीय
है, उसे हम ठस (र की ओर छोड़ते हैं । वह हमें पुष्टि दे तथा जो हमसे द्वेष करते हैं और हम जिससे द्वेष करते
हैं; इस ज्ञान-प्रयोग से, इस अभिचार से तथा इस इच्छाशक्ति से उनका वध करें, उन्हें नष्ट करें ॥१७ ॥
२७७०. यो व आपोऽपां वृषभो३प्स्वन्तर्यजुष्यो देवषजनः । इदं तमति सृजामि तं
माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो योरेस्मान् दष्ट यं वयं द्विष्मः ।
तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥१८ ॥
है अप् प्रवाहो ! आपका जो वृषभ (बलशाली या वर्षणशील अंश) है । जो रसों के बीच यज्ञादि पें देवों के
लिए यजनीय है, उसे हम उस (शत्रु) की ओर छोड़ते हैं । वह हमें पुष्टि दे तथा जो हमसे द्रेष करते हैं और हम
जिससे द्वेष करते हैं; इस ज्ञान-प्रयोग से इस अभिवचार से तथा इस इच्छाशक्ति से उनका वध करें, उन्हें नष्ट
करें ॥१८ ॥
२७७९१, यो व आपोऽपां हिरण्यगरभोदिप्स्वरन्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं
माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो योरेस्मान् दष्ट यं वयं द्विष्मः ।
त॑ वधेयं तें स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥१९ ॥
हे अप् प्रवाहो । आपका जो हिरण्यगर्भ रूप है, जो रसों के बीच यज्ञादि में देवों के लिए यजनीय है, उसे
हम उस (शत्रु) की ओर छोड़ते हैं । वह हमे पुष्टि दे तथा जो हमसे देष करते हैं और हम जिनसे द्वेष करते हैं; इस
ज्ञान-प्रयोग से इस अभिचार से तथा इस इच्छाशक्ति से उनका वध करें, उन्हे नष्ट करें ॥१९ ॥
२७७२, यो व आपो5पामश्मा पृश्लिर्दिव्यो३प्स्व१न्तर्यजुष्यो देवयजन: । इदं तमति
सृजामि तं माभ्यवनिक्षि। तेन तमभ्यतिसृजामो योरेस्मान् दष्ट यं बयं द्विष्मः ।
तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥२० ॥
हे अप् प्रवाहो ! आपका जो अश्म (पत्थर जैसा सुदृढ़), सूर्य जैसा दिव्य अंश है, जो रसों के बीच
यज्ञादि में देवों के लिए यजनौय है, उसे हम उस (शत्रु) कौ ओर छोड़ते हैं । वह हमें पुष्टि दे तथा जो हमसे
देष करते हैं और हम जिनसे द्वेष करते हैं; इस ज्ञान-प्रयोग से,इस अभिचार से तथा इस इच्छाशक्ति से
उनका वध करें, उन्हें नष्ट करें ॥२० ॥
२७७३. ये वै आपोऽपामग्नयोऽप्स्व९न्तर्यजुष्या देवयजनाः । इदं तानति सृजामि तान्
माभ्यवनिक्षि । तैस्तमभ्यतिसुजामो योरेस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।
तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥२९॥
हे अप् प्रवाहो ! आपका जो अग्नि जैसा उष्ण भाग है, जो रसों के बीच यज्जादि में देवों के लिए यजनीय है,
उसे हम उस (शत्रु) की ओर छाड़ते हैं । वह हमें पुष्टि दे तशा जो हमसे द्वेष करते हैं और हम जिनसे देष करते हैं;
इस ज्ञान-प्रयोग से, इस अभिचार से तथा इस इच्छाशवित ध उनका वध करें, उन्हें नष्ट करें ॥२१ ॥