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कै 3 ह.

[4 वन 282 राम

समय प्रसन्न हुए जटाधारी शौकरने उसे मुक्त महिमा जनि लिना मैंने पहले रणाङ्गणपे

करके उस त्रिशुलके अपग्रभागसे उतार छलिया इर्षगद्गद्‌ वाणीसे आपको जो दीन, हीन

और दिव्य अप्रतकी वषसि अभिषिक्त कर सथा नीच-से-नील कहा है और मूरखतावका

दिया। तत्पश्चात्‌ महात्मा महेश्वर उसने जो सेके जो-जो निन्दित कर्म किया है,

योछे ।

ईश्वल्ने कहा-हे दैत्पेन्द्र! मैं तेरे कामदोषबझ पार्वतीके विषयमें भी जो

इखिय-निग्रह, नियम, झौर्य और धैर्यसे दूषित भावना कर ली थी, उसे आप क्षमा

असन्न हो गया हैँ; अत: सुब्रत ! अब तरू कोई कर दें । आपको तो अपने कृपण, डुःखी एवं

खर माँग ले) दैत्योके राजाधिराज ! तूने दीन भक्तपर सदा ही विज्लेष दया करनी

निरन्तर मेरी आराधना को है, इससे तेरा

सारा कल्मष धुस्दं गया और अब तू चर

फानेके योस्य हो गया है! इसील्ख्यि मैं तुझे

खर देनेके लिये आया हूँ; क्योंकि तीन हजार

सर्षोत्तक बिना खाये-पीये प्राण धारण किये

रहनेसे तूने जो पुण्य कमाया है, उसके

फलस्वरूप तुझे सुखकी पफ दोनी चाहिये ‹

सनत्कुमारजी कहते रै-- मुने ! यहे

सुनकर अन्धक्कने भूमिपर अपने घुटने टेक

दिये ओर फिर वह हाथ जोड्कर काँपता

हुआ भगवान्‌ उपापतिसे बोला ।

अखकने का-- भगवन्‌ ! आपकी

चाहिये । मैं उसी तरहका एक दीन भक्त हूँ

और आपकी कारणे आया हू । देखिये, मैने

आपके सामने अकाल चाँध एखी है। अब

आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये। ये

जगज्जननी पार्वतीदेवी भी मुझपर प्रसन्न हो

जाये और स्वारे क्रोधको त्यागकर मुझे

कृषादृष्टिसे देखें / चत्ररोखर ! कहाँ तो

इनका भयंकर क्रोध और कहाँ मैं गुच्छ

दैत्य ? चद्रमौलि ! मैं किसी प्रकार उसको

सहन नहीं कर सकता। शाष्यो ! कहाँ तो

यरम उदार आय और कहाँ शु्मणा, मृत्यु

तथां काम-क्रोध आदि दोषोंके वशीभूत

लोकरावण सुतौ सन्ध यश्सूदनम्‌। कृत्तिकानां. तरतमे

भुनगभूषणम्‌ ॥ टतात्कप्वं चं येतार घोर शाकिनिपूजितम्‌ ॥

गजकुतिप्रीपानै शू

कृतियाससम्‌ |॥

अघोरं घोरदैर्यम॑ घोश्मोष॑ चनस्यतम्‌ । भस्माज़ जरि शुद्ध भेरुप्ड शतसावितम ॥

भूतेशं पूतकथं पद्चमृ्न्रतं खाम्‌ | केतौ निरं चण्डं चण्डो चण्डिकैप्रियन्‌॥

अण्डतुण्ड गरुत्मन्ने निम्निश॑ रत्वगोजनय्‌ । लेलिहानं

महरौद्रे मृत्यु पृत्योरोचम्‌ ॥

मृोर्ृ्म पहासेने इमङातारण्यवीतिनम्‌ | रान विराग रागाख॑ ्वार्गं झतार्थिषागु॥

स्व॑ रदस््रमोध्ममध्े वागश्यनुनम्‌ | सत्य

अर्धनारोधर

अोक्तरध)

नातु

द्येकधूतौतो

त्वभत्यै

स्डूपससदूपम्ेतुकम्‌ ॥

भाकु्ेदिलतभषप्‌ ॥ यज्ञे यत्तपति ल्दरमीदणन वष्ट सिना ॥

परणामन: । दिखा दावे! ध्याबन्‌ू मृत्तस्तस्मतह्मयात्‌॥

(दि पु० ७ स॑" मुद्धसखष्ड ४९ । ५-१४ )

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