अ ८ ]
+ सप्तम स्कत्ध *
४०३
जिति निति मौ मौ मे औ के म औ के है औ औ औ है औ औ कै है है के कै है मौ औ मौ औ औ हे औ औ के के कै के के के के औ वमौ हे औ औ है है औ के ही ही औ के कै जौ के है औ औ ४ '# कौ #औऔ औ और औ मै औ कै हे के औ कै हे है औऔ औ औ औऔ के हे कै की है ओो औऔली जौ औऔऔ जी और के है कै कै औे कौ औऔज के औऔ है हे औ औ जी हे औ औ की कै औ कै कै है है # है है औ
यथोचित ढंगसे करते हैं--फिर भी आप उनसे कोई
सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मै आपको
नमस्कार करता हँ ॥ ४० ॥
श्रीरुदरने कहा-- आपके क्रोध करनेका समय तो
कल्पके अन्ते होता है । यदि इस तुच्छ दैत्यको मारके
लिये हो आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका |
उसका पुत्र आपकी शरणमे आया है । भक्तवत्सल प्रभो !
आप अपने इस भक्तकी रक्षा कीजिये ॥ ४१ ॥
इन्दर कडा पुरुषोत्तम ! आपने हमारी रक्षा की
है । आपने हमारे जो यज्ञमाग लौराये हैं, वे वास्तवमें आप
(अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्योकि आतङ्कसे
हमारे हृदयकमलको आपने प्रफुल्लित कर दिया । वह भी
आपका ही निवासस्थान है । यह जो खर्गादिका रज्य
हमलोगोको पुनः प्राप्त हुआ है, यह सव कालक ग्रास
है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या ?
स्वापिन् ! जिन्हें आपकी सेवाकी चाह है, वे मुक्तिका भी
आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगोकी तो उन्हे
आवश्यकता ही क्या है ॥ ४२ ॥
ऋषियोनि कहा -- पुरुषोत्तम ! आपने तपस्याके द्वारा
ही अपने लीन हुए जगत्की फिरसे रचना की धी और
कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्थाका उपदेश
आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्यने उसी
तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस
तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे
लिये फिरसे उसी उपदेशका अनुमोदन किया है ॥ ४३ ॥
पितरोनि कहा--प्रथो ! हमारे पुत्र हमारे लिये
पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया
करता थां। जब तरे पवित्र तीर्थे या संक्रान्ति आदिके
अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलाझलि देते, तब
उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखोंसे उसका
पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे
दिया। आप समस्ते धमोकरि एकमात्र रक्षक हैं।
नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते है ॥ ४४ ॥
सिद्धोने कहा-- नृसिंहदेव ! इस दुष्टने अपने योग
और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी ।
अपने नखोंसे आपने उस घपेदीको फाड़ डाला है ।
हम आपके चरणो विनीत भावसे नमस्कार करते
हैं॥ ४५॥
विद्याधरोंने कहा--यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने
बल और वीरताके घमंडमें चुर था। यहाँतक कि हम-
लोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे
इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह
इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे नृसिंह बने हुए
आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं॥ ४६ ॥
नागोने कहा--इस पापीने हमारी मणियों और
हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर लिर्योको भी छीन लिया था!
आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियोंको
बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो ! हेम आपको नमस्कार
करते हैँ ॥ ४७ ॥
प्रनुओने कहा--देवाधिदेव ! हम आपके
आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्वने हमलोगोकी धर्ममर्यादा भंग
कर दी थौ । आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया
है । प्रभो ! हम आपके सेवक दै । आज्ञा कीजिये, हम
आपकी क्या सेवा करें 2 ॥ ४८ ॥
प्रजापतियोनि कहा-- परमेश्वर । आपने हमें
प्रजापति बनाया था । परन्तु इसके रोक देनेसे हम प्रजाकी
सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली
और यह जमीनपर सर्वदाके लिये सो गया। सत्वमय मूर्ति
धारण करनेवाले प्रभो ! आपका यह अवतार संसारके
कल्याणक्रे लिये है ॥ ४९ ॥
गन्धवोनि कहा प्रभो ! हम आपके नाचनेवाले,
अभिनय करनेवाले ओर संगीत सुनानेवाले सेवक है । इस
दैत्यने अपने बल, वीर्य ओर पराक्रमसे हमें अपना गुलाम
बना रखा धा । उसे आपने इस दशाको पहुँचा दिया। सच
है, कुमार्गे चलनेवालेका भी क्या कभी कल्याण हो
सकता है ? ॥ ५० ॥
चारणोनि कहा~ प्रभो ! आपने सज्जनॉके हदयको
पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर दिया | इसलिये
हम आपके उन चरणकमलॉंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त
होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्रसे छुटकारा मिल जाता
है॥ ५१॥
यक्षोने कहा--भगवन् ! अपने श्रेष्ठ कमंकरि कारण
हमलोग आपके सेबकॉमें प्रधान गिने जाते थे। परन्तु
हिरण्यकशिपुने हमें अपनी पालकी ढोनेबाला कहार बना