स्वर्गस्वण्ड ]
(27. १.9५
चिन्तन करे । परमेश्वर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, ज्ञानमय
अन्धकारसे परे विराजमान, सबके आधार, अव्यक्त-
स्वरूप, आनन्दमय, ज्योतिर्मय, अविनाशी, प्रकृति और
पुरुषसे अतीत, आकाशकी भाँति निर्लेप, परम कल्याण-
मय, समस्त भावोंकी चरम सीमा, सबका शासन करने-
वाले तथा ब्रह्मरूप है ।
तदनन्तर प्रणव-जपके पश्चात् आत्माको आकाश-
स्वरूप परमात्मामे छीन करके उनका इस प्रकार ध्यान
करे--'परमात्मदेव सबके ईश्वर, हृदयाकाशके बीच
विराजमान, समस्त भावोंकी उत्पत्तिके कारण, आनन्दके
एकमात्र आधार तथा पुराणपुरुष श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार
ध्यान करनेवाल्प पुरुष भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
जो समस्त प्राणियोंका जीवन है, जहाँ जगत्का लय होता
है तथा मुमुक्षु पुरुष जिसे ब्रह्मका सूक्ष्म आनन्द समझते
हैं, उस परम व्योमके भीतर केवछ--अद्वितीय ज्ञान-
स्वरूप ब्रह्म स्थित है, जो अनन्त, सत्य एवं ईश्वररूप है।'
इस प्रकार ध्यान करके मौन हो जाय । यह संन्यासियोंके
लिये गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय ज्ञानका वर्णन
किया गया। जो सदा इस ज्ञानमें स्थित रहता है, वह
इसके द्वारा ईश्वरीय योगका अनुभव करता है। इसलिये
संन्यासीको उचित है कि वह सदा ज्ञानके अभ्यासमें
तत्पर और आत्मविद्यापरायण होकर ज्ञानस्वरूप ब्रह्मका
चिन्तन करे, जिससे भव-बन्धनसे छुटकारा मिले।
* संन््यासीके नियम «
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पहले आत्पाको सब (दृश्य-पदार्थों) से पृथक्,
केवल--अद्वितीय, आनन्दमय, अक्षर--अविनाशी
एवं ज्ञानस्वरूप जान ले; इसके बाद उसका ध्यान करे।
जिनसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें जानकर
मनुष्य पुनः इस संसारमें जन्म नहीं लेता, वे परमात्मा
इसलिये ईश्वर कहलाते हैं कि ये सबसे परे स्थित
है--सबके ऊपर अध्यक्षरूपसे विराजमान हैं। उन्हींके
भीतर उस दाश्वत, कल्याणमय अविनाशी ब्रह्मका ज्ञान
होता है, जो इस दुश्य जगत्के रूपमें प्रत्यक्ष और
स्वस्वरूपसे परोक्ष हैं, वे ही महेश्वर देव हैं। सन्यासियोकि
जो व्रत बताये गये हैं, वैसे ही उनके भी व्रत है उन
व्रतोपेसे एक-एकका उल्लड्ड]न करनेपर भी प्रायश्चित्त
करना पड़ता है।
सन्यासी यदि कामनापूर्वक स्त्रीक पास चला जाय
तो एकाग्रचित्त होकर प्रायश्चित्त करे । उसे पवित्र होकर
प्राणायामपूर्वक सॉतपन-क्रत करना चाहिये । सौतपनके
बाद चित्तको एकाग्र करके इौच- संतोषादि नियमोका
पालन करते हुए वह कृच्छरतकाः अनुष्ठान करे ।
तदनन्तर आश्रमे आकर पुनः आलस्यरहित हो
भिक्षुरूपसे विचरता रहे । असत्यका प्रयोग कभी नहीं
करना चाहिये; क्योकि यह झूठका प्रसङ्ग बड़ा भयङ्कर
होता है। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाल््न संन्यासी यदि
झूठ बोल दे तो उसे उसके प्रायश्चित्तके लिये एक रात
१- ओक्परानतेऽथ चातन समाप्य परम्ात्मनि । आकारौ देवमीशान॑ ध्यायेदाकारामध्यगम् ॥
कारणं सर्वभाव्छनामानन्दैकसमाश्रयम् । पुराणपुरुष विष्णु ध्यायन्मुच्येत बन्धनात् ॥
जीवन सर्वधूतानौ यत्र त्तकः प्रलीयते । आनन्दं ब्रह्मणः सूक्ष्म यत्पदयन्ति मुमुक्षवः ॥
तन्मध्ये निहित ब्रह्म केवलौ ज्ञानलक्षणम्। अनन्तं सत्यमीशान विचित्त्यासीत वाम्यतः ॥
गुछाद् गुह्यतमे आन यतीनामेतदीरितम् । योउत्र तिहेत्सदानेन सोऽश्रुते योगमैश्वरम् ॥
तस्मास्ड्ानरतो निल्यमात्मविद्यापरायण: । जञानं समभ्यसेद् ब्रह्म येन मुच्येत बन्धनात् ॥
मत्या पृथक तमात्मान॑ सर्वस्मादेव केव् । आसल्दमश्वरे ज्ञान ध्यायेत् च ततः परम् ॥
यस्माद् भवन्ति भूतानि यज्त्वा नेह जायते ।
स तस्मादीश्चरो देवः परस्ताद् योऽधितिष्ठति । यदन्ते तद्गमनै॑ चाश्चत॑ दिचमस्ययम् ॥
य इदं स्वपरोक्षस्तु स देवः स्यान्महेश्वरः । व्रतानि यानि भिधयूलौ तथैवास्य व्रतानि च ॥ (६० । ११-१२, द४-- २०)
२- गोमूत्र, गोबर, गायका दूध, गायका दही, गायका घी और कुशका जल--इन सबको मिलाकर पी ले तथा उस दिन और
कुछ भी न खायः फिर दूसरे दिन चौबीस धटे उपवास करे । यह दो दिनका सॉतपन-म्रत होता है। ३- यदि उपर्युक्त छः वस्तुऑमेंसे
एक-एकको एक-एक दिन खाकर रहे और सातवे दिन उपवास करे तो यह कृच्छर या महासांतपन-्रत कहलाता है ।