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* श्रीकृष्णजन्मखण्ड * ४४७

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केशव रक्षा कर । हषीकेश अधरोष्ठकी, गदाग्रज | वर्णन किया गया । पूर्वकालमें मेरे स्मरण करनेपर

दन्तप॑क्तिकी, रासेश्वर रसनाकी और भगवान्‌ वामन | भगवान्‌ श्रीकृष्णने कृपापूर्वक मुझे इसका उपदेश

तालुकौ रक्षा कर । मुकुन्द तुम्हारे वक्षःस्थलकी | दिया था। शुम्भके साथ जब निर्लक्ष्य, घोर एवं

रक्षा कर । दैत्यसूदन उदरका पालन करें । जनार्दन | दारुण संग्राम चल रहा था, उस समय आकाशमें

नाभिकी और विष्णु तुम्हारी ठोढ़ीकी रक्षा करें। खड़ी हो मैंने इस कवचकी प्राप्तिमात्रसे तत्काल

पुरुषोत्तम तुम्हारे दोनों नितम्बं ओर गुह्या भागकी | उसे पराजित कर दिया था। इस कवचके प्रभावसे

रक्षा करें। भगवान्‌ जानकीश्वर तुम्हारे युगल | शुम्भ धरतीपर गिरा और मर गया। पहले सैकड़ों

जानुओं (घुटनों)- की सर्वदा रक्षा करें। नृसिंह | वर्षोंतक भयंकर युद्ध करके जब शुम्भ मर गया,

सर्वत्र संकटमें दोनों हार्थोकौ और कमलोद्धव | तब कृपालु गोविन्द आकाशमें स्थित हो कवच

वराह तुम्हारे दोनों चरणोंकी रक्षा करें। ऊपर और माल्य देकर गोलोकको चले गये।

नारायण और नीचे कमलापति तुम्हारी रक्षा करं ।| मुने! इस प्रकार कल्पान्तरका वृत्तान्त कहा

पूर्व दिशामे गोपाल तुम्हारा पालन करं । अग्निकोणे | गया है । इस कवचके प्रभावसे कभी मनम भव

दशमुखहन्ता श्रीराम तुम्हारी रक्षा करं । दक्षिण | नहीं होता है । मैंने प्रत्येक कल्पमें श्रीहरिके साथ

दिशामें वनमाली, नैऋत्यकोणमें वैकुण्ठ तथा | रहकर करोड़ों ब्रह्माओंको नष्ट होते देखा है। ऐसा

पश्चिम दिशामें सत्पुरुषोंको रक्षा करनेवाले स्वयं | कह कवच देकर देवी योगनिद्रा अन्तर्धान हो गयी

वासुदेव तुम्हारा पालन करेँ। वायव्यकोणमें अजन्मा | और कमलोद्धव ब्रह्मा भगवान्‌ विष्णुके नाभिकमलमें

विष्टरश्रवा श्रीहरि सदा तुम्हारी रक्षा करें। उत्तर | निःशंकभावसे बैठे रहे। जो इस उत्तम कवचको

दिशामे कमलासन ब्रह्मा अपने तेजसे सदा तुम्हारी |सोनेके यन्त्रमें मढ़ाकर कण्ठ या दाहिनी बाँहमें

रक्षा कर । ईशानकोणे ईश्वर रक्षा कर । शत्रुजित्‌ | बाँधता है, उसकी बुद्धि सदा शुद्ध रहती है तथा

सर्वत्र पालन करे । जल, धल ओर आकाशम तथा | उसे विष, अग्नि, सर्प और शतुओंसि कभी भय

निद्रावस्थामें श्रीरघुनाथजी रक्षा करे । नहीं होता। जल, थल ओर अन्तरिक्षे तथा

ब्रह्मन्‌! इस प्रकार परम अद्भुत कबचका | निद्रावस्थार्मे भगवान्‌ सदा उसकी रक्षा करते हैं * ।

* हस्तं दत्वा शिशोगत्रि पपाठ कवचं द्विजः। वदामि तत्ते विप्ेद्र कवचं स्वलक्षणम्‌ ॥

यदत्तं मायया पूवं ब्रह्मणे नाभिपड्ूजे।

निद्रिते जगतींनाथे जले च जलशायिनि। भीताय स्तुतिकरत्रे च मधुकैटभयोर्भयात्‌॥

योगनिद्रोवाच

यहाँ दशास्यहा ॥

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