४४ ऋवेट संहिता धाग - २
शत्रुदमनशील इन्द्रदेव ने परस्पर संगठित होकर बहने वाले एवं सबको आनन्दित करने वाले जल को
उत्पन्न किया । वे अन्न उत्पादक जल प्रवाह, अग्नि, सूर्य एवं वायु के द्वारा शोधित-पवित्र होकर मधुर सोमरसो को
दिन-रात प्रेरित करते रहते हैं ॥९६ ॥
२७३२. अनु कृष्णो वसुधिती जिहाते उभे सूर्यस्य मंहना यजत्रे ।
परि यत्ते महिमानं वृजध्यै सखाय इन्र काम्या ऋजिप्या: ९७ ॥
हे इद्धदेव ! जिस प्रकार सूर्यशक्ति के द्वारा अपार वैभव से सम्पन्न महिमामण्डित दिन और रात्रि एक दूसरे
का अनुगमन करते हुए निरन्तर गतिशील है, उसी प्रकार सुगम मार्गों से निरन्तर प्रवाहित होने वाले मित्र और
परुदेव शत्रुओं का विनाश करने का सम्पूर्ण बल आपसे ही प्राप्त करते है ॥१७ ॥
२७३३. पतिर्भव वृत्रहन्त्सूनतानां गिरां विश्वायुर्वषभो वयोधा:।
आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन् ॥१८ ॥
हे वृत्रहन्ता इनद्रदेव ! आप अविनाशी, अभीष्टवर्षक और अत्र-प्रदाता है । हमारे द्वारा प्रेमपूर्वक की गई
स्तुतियों को स्वीकार करें । आप यज्ञ मे जाने के अभिलाषी ओर महान् दै । अपनी महती और कल्याणकारी
रक्षण-सामर्थ्यों से युक्त होकर मैत्री भाव सहित हम सब पर अनुग्रह करें ॥१८ ॥
२७३४. तमड्डिरस्वन्नमसा सपर्यन्नव्यं कृणोमि सन्यसे पुराजाम्।
दहो वि याहि बहुला अदेवीः स्वश्च नो मघवन्त्सातये धाः ॥१९॥
पुरातन दिव्यपुरुष हे इन्द्रदेव | हम नमन-अभिवादन सहित आपकी पूजा करते हैं । आपके निमित्त हम नवीन
सतोत्रं को सम्पादित करते है । हे ऐश्वर्यवान् इद्धदेव ! दैवीय गुणरहित द्रोहियों को हमसे दूर करें और हमारे
उपयोग के लिए धनादि प्रदान करें ॥१९ ॥
२७३५. मिहः पावकाः प्रतता अभूवन्त्स्वस्ति नः पिपृहि पारमासाम्।
इन्द्र त्वं रथिरः पाहि नो रिषो पक्षुपक्षु कृणुहि गोजितो न: ॥२० ॥
हे इनद्रदेव ! पवित्र वर्षणशील (सिंचनकारी) जल चारो ओर फैला है । हमारे कल्याण के लिए जलाशयो के
किनारो को जल से पूर्ण करे । तीवगामी रथ से युक्त हे देव ! हमें शत्रुओं से संघर्ष करने की सामर्थ्य तथा गौओं
के रूप में अपार वैभव प्रदान करें ॥२० ॥
२७३६. अदेदिष्ट वृत्रहा गोपतिर्गा अन्तः कृष्णां अरुषैर्धामभिर्गात् ।
्र सूनृता दिशमान ऋतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः ।२९ ॥
वृत्रहन्ता और दिव्य शक्तियों के संगठक स्वामी इन्द्रदेव, हमें सर्वोत्तम ज्ञान से अभिपूरित करें । वे हमारे
आन्तरिक शत्रुओं को अपने तेजस्वी पराक्रम द्वारा विनष्ट कर दें । यज्ञ में हमारी प्रीतिकर स्तुतियों को स्वीकार
करते हुए वे हमारे सम्पूर्ण दुर्गो को दुर करें ॥२१ ॥
२७३७. शुन॑ हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं॑ वाजसातौ ।
शण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सज्जितं धनानाम् ॥२२॥
धन-धान्य से सम्पन्न ऐश्वर्यवान् हे इ्रदेव । आप हमारी प्रार्थनाओं से प्रसन्न होकर युद्धो में
अपना पराक्रम दिखाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते ह । हम अपनी रक्षा के लिए आपका
आवाहन करते है ॥२२ ॥