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४०८ |] [ ब्रह्माण्ड पुराण

उस नदी में थे । चक्र से कटे हुए करियों के समुदाय ही उसमें कमो की

परम्परा थीं !५१। शक्तियों के हारा ध्वस्त महान देत्यों के गलगण्ड ही उस

नदी में शिक्षोरुचय थे । जिनके काण्ड विलून होगये हैं ऐथ चमर जो उसमें

थे वे ही फेन थे ।५२। तीक्ष्ण जो असियां थीं वे ही बललरी थीं जिनके कारण

उस-नदी की वटभूमि निविड़ हो रही थी । दैत्यों के नेत्रों के श्रेणियाँ ही

मुक्ति सम्पुट ये जिससे वह नदी भासुर थी ।५३। दैत्य वाहनों के समुदाय

ही उस झोणित की. नदी में सेकडों नक्‌ ओर मछलियां थीं जिनसे वह घिरी

हुईं थी । दोनों सेनाओं का युद्ध होते पर वहाँ रधिर की नदी प्रवाहित हो

रही थी ।५४। इसके अनन्तर श्री ललिता देवी भौर भण्ड का युद्ध हुआ था।

उसमें अस्त्रो और प्रत्यस्त्र का ऐसा सक्षोभ हुआ था कि समस्त दिशायें

तुमुली कृत हो गयो थीं ।५६।

धनुर्ज्यातलटंका रहुंका रैरतिभीषण: ।

तृणीरवदनाक्कृष्टधनुवं रविनिः सृते: ।

विमुक्तं विशिखेर्भीमि राहवे भ्राणहारिभिः ॥५७

हस्तलाघववेगेन न प्राज्ञायत्त किचन ।

महाराज्ञीक रांभोजव्यापारं शरमोक्षणे ।

श्वृणु सवं प्रवक्ष्यामि कुम्भसंभव सङ्करे ॥५०८

संधाने त्वेकधा तस्य दशधा चापनिगेमे ।

शतधा गगने दंत्यसेन्य प्राप्तौ सहशखधा ।

दे त्यांगसंगे संप्राप्ताः कोटिसंख्याः शिलीमृखाः ।५६

परांधकारं सृजती भिदती रोदसी शरः ।

मर्माभिनत्प्रचंडस्य महाराज्ञी महेषुभिः ॥६०

वहत्कोपारुणं नेत्रं ततो भंड: स दानवः ।

ववषं गरजालेन महता ललितेश्वरीम्‌ ॥॥६१

अन्धतामिल्लकं नाम महास्त्र प्रमृमोच सः ।

महातरणिबाणेन तन्नुनोद महेश्वरी ।६२

पाखंडास्त्र महावीरो भंड; प्रमुमुचे रणे ।

गायत्यस्वरं तस्य नृत्ये ससर्ज जगदम्बिका ॥ ६३

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