ॐ ३३ ]
पञ्चम अंश
४०१
श्रीदाङ्कर उवाच
कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ जाने त्वां पुरुषोत्तमम् ।
परेद परमात्मानमनादिनिधनं हरिम् ॥ ४९
इारीरग्रहणात्मिका ।
लीलेय॑सर्वभूतस्य तव चेष्टोपलश्चषणा ॥ ४२
तत्प्रसीदाभयं दत्तं बाणस्यास्य मया प्रभो ।
तततवया नानृतं कार्य यन्मया व्याहतं वचः ॥ ४३
अस्मत्संश्रयदृप्नोऽयं नापराधी तवाव्यव ।
मथा दत्तवरो दैत्यस्ततस्त्वौ क्षमयाम्यहम् ॥ 8४
श्रीपयदार उवाच
इत्युक्तः प्राह गोविन्दः झूलपाणिमुमापतिम् ।
प्रसन्नक्दनो भूत्वा गतामर्षोऽसुरं प्रति ॥ ४५
भगवानुवाच
युष्दत्तवरो वाणो जीवतामेष शङ्कुर ।
तवद्राक्यगौरवादेतन्पया चक्रं निवर्तितम् ॥ ४६
त्वया यदभयं दत्त तहत्तमखिलं मया ।
मत्तोऽविभिन्नमात्मानं ष्मसि _ रधर ॥ ४७
योऽहं स त्वं जगच्ेदं सदेवासुरमानुषम् ।
मत्तो नान्यदरोषं यत्तत्त्व ज्ञातुमिहाहसि ॥ ४८
अविष्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः ।
बदन्ति चदे पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर ॥ ४९
प्रसन्नोऽहं गमिष्यामि त्वं गच्छ वृषभध्वज ॥ ५०
श्रीपराङर उवाच
इत्युक्त्वा प्रययौ कृष्णः प्राद्युप्नि्यत्र तिष्ठति ।
तद्न्धफणिनो नेशरगरुडानित्कपोथिताः ॥ ५१
ततोऽनिरुद्धमारोप्य सपत्रीकं गरुत्यति ।
आजगूरखरकौ रामकार््णिदामोदराः पुरीम् ॥ ५२
पुत्रपौत्रैः परिवृतस्तत्न रेमे जनार्दनः ।
देवीभिस्सततै विप्र॒ भृभारतरणेच्छया ॥ ५३
श्ीडमापतिने गोविन्दके पास आकर सामपूर्वकं
कहा-- ॥ ४० ॥
बोले--हे कृष्ण ! हे कृष्ण !! टे
जगन्नाथ !! मैं यह जानता हूँ कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर,
परमात्मा और आदि-अन्तसे रहित श्रीहरि हैं॥४१॥
आप सर्वभूतमय हैं । आप जो देव, तिर्यक् ओर मनुष्यादि
योगनियोंमें शरीर धारण करते हैं यह आपकी स्वाधीन
चेष्टाकी उपलक्षिका लीला हो है ॥ ४२ ॥ है प्रभो आप
प्रसन्न होइये। मैंने इस बाणासुरको अभयदान दिया है । हे
नाथ | मैंने जो कचन दिया है उसे आप मिथ्या न
करें ॥ ४३ ॥ है अव्यय ! यह आपका अपराधी नहीं है;
यह तो गेरा आश्रय पानेसे ही इतना गर्वीला हो गया है।
इस दैत्यको मैंने ही वर दिया था इसलिये मैं ही आपसे
इसके लिये क्षमा कता हूं ॥ डड ॥
श्रीपराङारजी खोछे--विशूलपाणि भगवान् उमापतिके
इस प्रकार कहनेपर श्रीगोतिन्दने बाणासुरके प्रति क्रोधभाव
त्याग दिया और प्रसन्नवदन होकर उनसे कहा-- ॥ ४५॥
श्रीभगवान् बोले--हे शङ्कर ! यदि आपने इसे वर
दिया है तो यह बाणासुर जीवित रहे आपके वचनका मान
रखनेके लिये मैं इस चक्रको रोके लेता हूँ॥ ४६॥ आपने
जो अभय दिया है वह सब मैंने भी दे दिया। हे शङ्कर !
आप अपनेको मुझसे सर्वथा अभिन्न देखें ॥ ४७ ॥ आप
यह ध्री प्रकार समझ लें कि जो मैं हूँ सो आप हैं तथा यह
सम्पूर्ण जगत्, देव, असुर और मनुष्य आदि कोई भी मुझसे
भिन्न नहीं हैं ॥ ४८ ॥ है हर ! जिन लोगोंका चित्त अविद्यासे
मोहित है वे भिन्नदर्शी पुरुष ही हम दोन भेद देखते और
बतल्वते रै । हे वृषभध्वज ! मैं प्रसन्न हूँ, आप पधारिये, मै
भी अब जाऊँगा ॥ ४९-५० ॥
श्रीपराशसरजी खोले--इस प्रकार कहकर भगवान
कृष्ण जहाँ प्रययुम्नकुमार अनिरुद्ध थे वहाँ गये। उनके
पहुँचते ही अनिरुद्धके बन्धनरूप समस्त नागगण गरुडके
बेगसे उत्पन्न हुए वायुके प्रहास्से नष्ट हो गये ॥ ५१॥
तदनन्तर सपत्रीक अनिरुद्कों गरुडपर चढ़ाकर बलराम,
प्द्युप्र और कृष्णचन्द्र द्वारकापुरमें वजैट आये ॥ ५२ ॥ हे
विप्र ! वहाँ भू-भार-हरणकी इच्छासे रहते हुए श्रीजनार्दन
अपने पुत्र-पौत्रादिसे घिरे रहकर अपनी रानियोंके साथ
रमण करने लगे ॥ ५३ ॥
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इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चर्मेऽहो त्रयखिंदोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
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