१८ अवरवविट् संहिता भाग-१
२७६२. वरुणस्य भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त।
प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१० ॥
हे दिव्य प्रवाहो ! आप वरुण के अंश है । जल के शुक्ररूप तेजस् को आप हममे स्थापित करें । प्रजापति
के धाम से पारे आपको हम इस लोक में सुनिश्चित स्यान प्रदान करते हैं ॥१० ॥
२७६३. मित्रावरुणयोर्भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।
प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥९९ ॥
है दिव्यप्रवाहो ! आप मित्रावरुण के भाग है । जल के शुक्र (उत्पादक अंश) रूप आप हममे तेजस् को
स्थापना करें । प्रजापति के धाम से पधारे आपको हम इस लोक में सुनिश्चित स्थान प्रदान करते हैं ॥११ ॥
२७६४. यमस्य भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्व्चौँ अस्मासु धत्त ।
प्रजापतेर्वो धाम्नास्यै लोकाय सादये ॥१२ ॥
हे दिव्यप्रवाहो ! आप यमदेव के भाग है । जल के शुक्ररूप आप हरमे तेजस् स्थापित करें । प्रजापति के
धाम से आए, आपको हम इस लोक में सुनिश्चित स्थान देते है ॥१२ ॥
२७६५. पितृणां भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।
प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१३ ॥
हे दिव्य अप् प्रवाहो ! आप पितर गणो के अंश है । जल के शुक्ररूप आप हममे तेजस् स्थापित करें ।
प्रजापति के धाम से आए, आपको हम इस लोक मे सुनिश्चित स्थान देते है ॥१३ ॥
२७६६. देवस्य सवितुर्भाग स्थ । अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।
प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥९४ ॥
हे दिव्य अप् प्रवाहो ! आप सर्वप्रेरक सवितादेव के अंश हैं । जल के शुक्ररूप आप हममे तेजस् स्थापित
करें । प्रजापति के धाम से आए, आपको हम इस लोक में सुनिश्चित स्थान प्रदान करते है ॥१४ ॥
२७६७. यो व आपोऽपां भागोरेप्स्वरन्तर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तमति सृजामि तं
माभ्यवनिक्षि । तेन तमभ्यतिसृजामो योरेस्मान् दष्ट य॑ वयं द्विष्मः ।
तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥१५ ॥
हे अप् प्रवाहो ! आपका जो जलीय भाग है, जो रसों के बीच यज्ञादि में देवों के लिए यजनीय अंश है, उसे
ह उस (शत्रु) की ओर छोड़ते है । वह हमें पुष्टि दे तथा जो हमसे देष करते हैं और हम जिनसे देष करते हैं; इस
ज्ञान-प्रयोग से, इस अभिचार से तथा इस इच्छाशक्ति से उनका वध करें, उन्हें नष्ट करें ॥१५ ॥
२७६८. यो व आपोऽपामूर्भिरप्स्वनतर्यजुष्यो देवयजनः । इदं तपति सृजामि तं
माभ्यवनिक्षि। तेन तपभ्यतिसुजामो यो३स्मान् द्रष्ट य॑ वय॑ द्विष्मः ।
तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या १६ ॥
हे अप् प्रवाहो ! आपकी जो गतिशील लहरें है, जो रसो के बीच यज्ञादि में देवों के लिए यजनीय है, उसे
हम उस (शत्रु) की ओर छोड़ते हैं | वह हमें पुष्टि दे तथा जो हमसे द्वेष करते हैं और हम जिनसे द्वेष करते हैं; इस
ज्ञान-प्रयोग से, इस अभिचार से तथा इस इच्छाशक्ति से उनका वध करें, उन्हें नष्ट करें । ॥१६ ॥