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+ पुराणं परमं पुण्य भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्ख

सफल है, उसकी कहाँतक प्रशंसा की जाय । जो तडाग आदि.

बनाकर उसके किनारे देवालय बनवाता है तथा उसमें

देवप्रतिष्ठा करता है, उसके पुण्यका कहाँतक वर्णन किया

जाय ? देवालयकी ईट जबतक खण्ड-खण्ड न हो जाय,

तबतक देवालय बनानेवाला व्यक्ति स्वर्गमें निवास करता है।

कूप ऐसे स्थानपर बनवाना चाहिये, जहाँ यहुत-से जीव जल

पी सकें, कृपका जल स्वादिष्ट हो तो कृप बनवानेवालेके सात

कुल्मेंका उद्धार हो जाता है। जिसके बनाये हुए कूपका जल

मनुष्य पीते हैं, वह सभी प्रकारका पुण्य प्राप्त कर लेता है, ऐसा

मनुष्य सभी प्राणियोका उपकार करता है। तड़ाग बनवाकर

उसके तटपर वृक्षोेके बीच उत्तम देवालय बनवानेसे उस

व्यक्तिकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त रहती है और कहत समयतक

दिव्य भोग भोगकर वह चक्रवर्ती राजाका पद प्राप्त करता है।

जो व्यक्ति वापी, कूप, तडाग, धर्मत आदि बनवाकर

अन्नका दान करता है और जिसका वचन अति मधुर है,

उसका नाम यमराज भी नहीं ठेते ।

वे वृक्ष धन्य हैं, जो फल, फूल, पत्र, मूल, वल्कल,

छाल, लकड़ी और छायाद्वार सबका उपकार करते हैं।

वस्तुओंके चाहनेवालॉंको वे कभी निरादा नहीं करते।

धर्म-अर्थसे रहित बहुतसे पुत्रोंसे तो मार्गमे लगाया गया एक

ही यृक्ष श्रेष्ठ है, जिसकी छायामें पथिक विश्राम करते हैं।

सघन छायावाले श्रेष्ठ वृक्ष अपनी छाया, पल्छव और छालके

द्वार प्राणियोंको, पुष्पोकि द्वारा देवताओंको और फलोंके द्वारा

पितरोंको प्रसन्न करते हैं। पुत्र तो निश्चित नहीं है कि एक वर्षपर

भी श्राद्ध करेगा या नहीं, परंतु वृक्ष तो प्रतिदिन अपने

फल-मूल, पत्र आदिका दानकर वृक्ष लगानेवालेका श्राद्ध

करते हैं। वह फल न तो अम्रिहोत्रादि कर्म करनेसे और न ही

पुत्र उत्पन्न करनेसे प्राप्त होता है, जो फल मार्गमें छायादार

वृक्षके लगानेसे प्राप्त होता है।

छायादार वुक्च, पुष्प देनेवाले वृक्ष, फल देनेवाले वृक्ष

तथा वुक्षबाटिका कुलीन सखीकी भाँति अपने पितृकुल तथा

पतिकुल दोनों कुत्त्रैको उसी प्रकार सुख देनेवाले होते हैं, जैसे

लगाये गये वृक्ष आदि अपने खगानेवारे तथा रक्षा आदि

करनेवाले दोनोंके कुलॉका उद्धार कर देते हैं। जो भी बगीचा

आदि रूगाता है, उसे अवश्य ही उत्तम ल्त्रेककी प्राप्ति होती

है और वह व्यक्ति नित्य गायत्रीजपका, नित्य दानका और नित्य

यज्ञ करनेका फल पाता है। जो पुरुष एक पीपल, एक नीम,

एक बरगद, दस इमली तथा एक-एक कैथ, बिल्व और

आमलक तथा पाँच आमके वृक्ष लगाता है, वह कभी

नरकका मुँह नहीं देखता'। जिसने जल्मदाय न बनवाया हो

और एक भी वृक्ष न लगाया हो, उसने संसारमें जन्म ठेकर

कौन-सा कार्य किया। वृक्षेके समान कोई भी परोपकारी नहीं

है। वृक्ष धूपमें खड़े रहकर दूसरोंको छाया प्रदान करते हैं तथा

फल, पुष्प आदिसे सबका सत्कार करते हैं। मानर्वोकी शुभ

गति पुत्रके बिना नहीं होती--यह कथन तो उचित ही है,

किंतु यदि पुत्र कुपुत्र हो गया तो बह अपने पिताके लिये

कलंकस्वरूप तथा नरकका हेतु भी बन जाता है। इसलिये

वदान्‌ व्यक्तिको चाहिये कि विधिपर्यक वृक्षारोपण करके

उसका पालन-पोषण करें। इससे संसारमें न तो कलक होता

है और न निन्‍्द्य गति ही प्राप्त होती है, बल्कि कीर्ति, यदा एवं

अन्ते शुभ गति प्राप्त होती है।

इसी प्रकार जो व्यक्ति भव्य देव-मन्दिर बनवाकर उसमें

देवमूर्तियॉंकी प्रतिमाओंको स्थापित करता है, म्द

अनुलेपन, देवताओंका अभिषेक, दीपदान तथा विविध

उपचारोंद्वा उनकी अर्चा करता अथवा करवाता है, वह इस

संसारमें ग्रज्यश्री प्राप्त कर अन्तमे परमधामको प्राप्त करता है

तथा इस ल्म्रेकमें कीर्ति एवं यशरूपी ऋरीरसे प्रतिष्ठित रहता

है। (अध्याय १२७--१२९)

दीपदानकी महिमा-प्रसंगमें जातिस्मरा रानी लक्िताका आख्यान

महाराज युधिष्ठिरने पृषछा-- भगवन्‌ ! वह कौन-सा

त्रत, तप, नियम अथवा दान है, जिसके करनेसे इस स्म्रेकमें

अत्यन्त तैजोमय दारीरकी प्राप्ति होती है । इसे आप बताये ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले-- महाराज ! किसी समय

१-अश्रत्यमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधभेक दशा तिकिडीकान्‌। कपित्थनिल्वामलूकीत्रय च पह्काप्ररोपी कै न ॒पडयेत्‌ ॥

(ज्तरप्वं १२८॥ ११)

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