Home
← पिछला
अगला →

उत्तरपर्व ]

* इष्टाूर्तकी महिमा +

३९९

[य

कर प्राण त्यागता है, उसे यही भाव प्राप्त होता है। अतः सब

प्रकारसे निवृत्त होकर निरन्तर वासुदेवका चित्तन करना

चाहिये' ।

राजन्‌ ! अब आप भगवानके चित्तन-ध्यानके स्वरूपोंको

सुनें, जिन्हें महर्षि मार्कण्डेयजीने मुझसे कहा था--राज्य,

उपभोग, शयन, भोजन, वाहन, मणि, खी, गन्ध, माल्य, वस,

आभूषण आदिमे यदि अत्यन्त मोह रहता है तो यह रागजनित

"आद्य ध्यान है ।

यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसीके ऊपर प्रहार

करनेकी द्वेषपूर्ण वृत्ति हो और दया न आये तो इसे ही

क्रोधजनित 'रौद्र' ध्यान कहां गया है। वेदार्थके चिन्तन,

इच्धरियोंके उपदामन, मोक्षकी चिन्ता, प्राणियोंके कल्याणकी

भावना आदि ही धर्मपूर्ण सात्विक (धर्म्यः) ध्यान है। समस्त

इन्दरयोकय अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त हो जाना, इृदयमें

इष्ट-अनिष्ट किसीकी भी चिन्ता नहीं करना और आत्पस्थिर

होकर एकमात्र परमेश्वरका चिन्तन करना, परमात्मनिष्ठ हो

जाना--यह 'शुक्-ध्यानका स्वरूप है। "आद्य' ध्यानसे

तिर्यक्‌ -योनि तथा अघोगतिकी प्राप्ति होती है, 'रौद्र' ध्यानसे

नरक प्राप्त होता है। 'घर्म्य' (सात्तिक) ध्यानसे स्वर्गकी प्राप्ति

होती है और "शुक्ल, -ध्यानसे मोक्षकर प्राप्ति होती है। इसलिये

ऐसा प्रयत्न करना चाहिये जिससे कल्याणकारी 'शुक्ल' ध्यानमें

ही मन-चित्त सदा लगा रहे। (अध्याय १२६)

इष्टापूर्तनकी महिमा

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--राजन्‌ ! विधिपूर्वक

वापी, कूप, ताग, बावली, वृक्षोद्यान तथा देवमन्दिर आदिका

निर्माण करानेवाले तथा इन कयेपिं सहयोगी- कर्मकार

शिल्पी, सूत्रधार आदि सभी पुण्यकर्मा पुरुष अपने

इष्टपूर्तधर्मके प्रभावसे सूर्य एवं चन्द्रमाकी प्रभाके समान

कान्तिमान्‌ विमानमें बैठकर दिव्यल्प्रेककों प्राप्त करते हैं।

जलदाय आदिकी खुदाईके समय जो जीव मर जाते हैं, उन्हें

भी उत्तम गति प्राप्त होती है। गायके दीरमे जितने भी रोमकूप

हैं, उतने दिव्य वर्षदक तडाग आदिक निर्माण करनेवाला

स्वर्गमें निवास करता है। यदि उसके पितर दुर्गतिक प्राप्त हुए

हों तो उनका भी वह उद्धार कर देता है। पितृशण यह गाथा

गाते हैं कि देखो ! हमारे कुलमें एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ,

जिसने जलाशयका निर्माणकर प्रतिष्ठा की । जिस तात्प्रबके

जलको पीकर गौएँ संतृप्त हो जाती हैं, उस तात्म्रव

बनवानेवालेके सात कुर्क उद्धार हो जाता है। तडाग, वापी,

देवाकयथ और सघन छायावाले व॒क्ष--ये चारों इस संसारसे

उद्धार करते हैं।

जिस प्रकार पुत्रके देखनेसे माता-पिताके स्वरूपका ज्ञान

होता है, उसी प्रकार जल्म्रदाय देखने और जल पीनेसे उसके

ककि जुभाशुभका ज्ञान होता है। इसलिये न्यायसे धनका

उपार्जनकर तडाग आदि बनवाना चाहिये। धूप और गर्मासे

व्याकुल पथिक यदि तडागादिके समीप जलका पान करे और

वृक्षौकी घनी छायामें ठंडी हवाका सेवन करता हुआ विश्राम

करे तो तड़ागादिकी प्रतिष्ठा कसनेवाला व्यक्ति अपने मातृकुल

और पितृकुलका उद्धार कर स्वयं भी सुख प्राप्त करता है।

इष्टापर्तकर्म करनेवाला पुरुष कृतकृत्य हो जाता है। इस

ल्तेकमें जो तडागादि बनवाता है, उसीका जन्म सफल है और

उसीकी माता पुत्रिणी कहलाती है। वही अजर है, यही अमर

है। जबतक तडाग आदि स्थित हैं और उसकी निर्मल कीर्तिका

प्रचार-प्रसार होता रहता है, तबतक वह व्यक्ति ख्वर्गवासका

सुख प्राप्त करता है। जो व्यक्ति हंस आदि पक्षीको कमछ और

कुबछूय आदि पुष्पोंसे युक्त अपने तडागमे जल पीता हुआ

देखता है और जिसके तात्प्रबमे घट, अञ्जलि, मुख तथा चंचु

आदिसे अनेक जीव-जन्तु जल पीते हैं, उसी व्यक्तिका जन्म

१-तिषठन्‌ भुञ्जन्‌ स्वपत्‌ गच्छ॑सतथा धावश्रितस्ततः । उतन्तिकले गोविन्द सैस्मस्त्यो भवेत्‌ ॥

य॑य चापि स्मरन्‌ भावे॑ त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ । तै तमेवैति कौन्तेय सदा

कद्भावभावितः ॥

( उस्प्वं १२६ । ३९--४०)

२-भविष्यपुणणमें यह विषय तीन पोषि तीन कार आया है और वेदोंसे रेकर स्मृतियों तथा अन्य पुराणोंमें भी बार-बार आता है। यह अन्तकेंदी

और बहिवेंदीके नामसे विख्यात है। इसमें जलाशय, वक्ष, उद्यान आदि लगानेसे सर्माधिक पुष्योंका सत्र बताया गया है। यहाँ इसका थोड़ा-सा

संक्षेप कर दिया गया है।मात्र सारभूत बातें दी गयी हैं।

← पिछला
अगला →