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प्रतीत होता है, वही खियोंके साथ सम्भोग करनेमें भी
है।* जवानीके बाद जय वुद्धावस्था मनुष्यको दबा लेती
है, तब असमर्थ होनेके कारण उसे पत्नी-पुत्र आदि
अन्धु-बान्धव तथा दुराचारी भृत्य भी अपमानित कर
बैठते है । बुढ़ापेसे आक्रान्ते होनेपर मनुष्य धर्म, अर्थ,
काम, मोक्ष--इनमेसे किसीका भी साधन नहीं कर
सकता; इसलिये युवावस्थामें ही धर्मका आचरण कर
लेना चाहिये † ।
प्रारब्ध-कर्मका क्षय होनेपर जो जीवॉका भिन्न-भिन्न
देहोंसे वियोग होता है, उसौको मरण कहा गया है।
वास्तवमे जीवकः नाश नहीं होता । मृत्युके समय जब
झरीरके मर्मस्थानोका उच्छेद होने लगता है और जीवपर
महान् मोह छा जाता है, उस समय उसको जो दुःख होता
है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। वह अत्यन्त दु-खी
होकर "हाय बाप ! हाय मैया! हा श्रिये !' आदिको
पुकार मचाता हुआ बारम्बार विलाप करता है ! जैसे सांप
मेढकको निगल जाता है, उसी प्रकार वह सारे संसारको
निगलनेवाली मृत्युका ग्रास बना हुआ है। भाई-
बन्धुओंसे उसका साथ छूट जाता है; प्रियजन उसे घेरकर
बैठे रहते हैं। बह गरम-गरम लम्बी साँसें खींचता है,
जिससे उसका मुँह सूख जाता है । रह-रहकर उसे मृच्छ
आ जाती है । बेहोशीकी हाछतमें वह जोर-जोरसे इधर-
उधर हाथ-पैर पटकने लगता है। अपने काबूमें नहीं
रहता । त्प्रज छूट जाती है और वह मल -मूत्रमे सना पड़ा
रहता है। उसके कण्ट, ओट और तालु सूख जाते है ।
वह बार-बार पानी मांगता है । कभी धनके विषयमे
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चिन्ता करने छगता है--'हाय ! मेरे मनेक बाद यह
किसके हाथ लगेगा ?' यमदूत उसे का्नलपाशमें बाँधकर
घसीट ले जाते हैं। उसके कण्ठमें घरघर आवाज होने
लगती है; दूतोंके देखते-देखते उसकी मृत्यु होती है।
जीव एक देहसे दूसरी देहमें जाता है। सभी जीव सबेरे
मल-मूत्रकी हाजतका कष्ट भोगते है; मध्याह्कालमें उन्हें
भूख-प्यास सताती है और रात्रिमें वे काम-वासना तथा
नींदके कारण छदा उठाते हैं [इस प्रकार सैसारका सारा
जीवन ही कष्टमय है] ।
पहले तो धनको पैदा करनेमें कष्ट होता है, फिर
पैदा किये हुए धनकी रखवालीमे छेदा उठाना पड़ता है;
इसके बाद यदि कहीं वह नष्ट हो जाय तो दुःख और
खर्च हो जाय तो भी दुःख होता है। भला, धनमें सुख
है हो कहाँ। जैसे देहधारी प्राणियोको सदा मृत्युसे भय
होता है; उसी प्रकार धनवानौको चोर, पानी, आग,
कुटम्बियों तथा राजासे भी हमेशा डर बना रहता है । जैसे
मोसको आकाश में पक्षी, पृथ्वीपप हिंसक जीव और
जलमें मत्स्य आदि जन्तु भक्षण करते हैं, उसी प्रकार
सर्वत्र धनवान् पुरुषको लोग नॉचते-खसोटते रहते दै ।
सम्पत्तिमे धन सबको मोहित करता--उन्मत्त बना देता
है, विपत्तिमे सन्ताप पहुँचाता है और उपार्जनके समय
दुःखका अनुभव कराता है; फिर घनको कैसे सुखदायक
कहा जाय ।‡ हेमन्त और शिक्षिरमें जाड़ेका कष्ट रहता
है। गर्ममिं दुस्सह तापसे संतप्त होना पड़ता है और
वर्षाकालमें अतिवृष्टि तथा अल्पवृष्टिसे दुःख होता है;
इस प्रकार विचार करनेपर कालम भी सुख कहाँ है ।
# कुमिभिः पीड्यमानस्य कुष्ठिनः पामरस्व च । कण्डूयनाधितापेन यत्सुख॑ खीषु तद्विदुः ॥
(६६। ११२)
¶ धर्मम च कमं च मोक्षो न जरया पुनः । राक्तः साधयितु तस्पाद् युवा धर्म समाचरेत् ॥
(६६। ११७)
| अर्थस्योपार्जने दुःखं दुःखमर्जिलरक्षणे । नादो दुःखे व्यये दुःखमर्थस्यैज कुतः सुखम् ॥
चौरेभ्यः सल्लिध्योउग्रे: स्वजनात् पार्थिकाद्पि | भयमर्थवतो तित्यै॑ मत्योदहभृतामिव
खे यधा पक्षिभिमौस भुज्यते श्वापदैर्भुवि । जले च भक्ष्यते मल्स्यैस्त् सर्वत्र वित्तवान् ॥
चिमोहयन्ति सम्पत्सु क्कपयन्ति विपत्सु च । वेदयन्तय्जने दुःखं कथमर्थाः सुखावहाः ॥
(६६ । १४८- १५१)