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३०० | ` [ मत्स्य पुराणं

राच्रिसूक्तञ्च रोद्रज्च पावमानं सुमङ्गलम्‌ ।

जपेयुः पौरुष सूक्त पूर्वतों बह्वूचा: पृथक्‌ ।३०

शाक्त रोद्रञ्च सौस्यच कूष्माण्ड जातवेदसम्‌ ।

सौरसूक्तं जपेन्मन्त्रं दक्षिणेन यजुविदः ।३१

वेराज्यं पौरुषं सूक्तं सौवणे रुद्रसंहिताम्‌ ।

शेशवं पञ्च निधनं गायकं ज्येष्ठसाम च ।३२

वाभदेव्यं वृहत्साम रौरवं सरथन्तरम्‌ ।

गवां व्रतं च काण्वञ्च रक्लाध्नं वयसस्तवा ।

गायेयुः सामगा राजन्‌ ! पश्चिमं द्वारमाश्चिता: ।३३

अथवेणश्चोत्तरतः शान्तिक पौष्टिक तथा ।

जपेयुर्मनसा देवभाश्चित्य वरुण प्रभुस्‌ ।३४

पूर्व रमितो रात्रावेव कृत्वाधिवासनमर ।

गजाश्वरथ्यावत्मोकात्‌ सद्भमाद्धदगोकुलात्‌ ।

मृदमादाय कुम्भेषु प्रक्षिपेज्चत्व रात्तथा ।३५

समस्त ग्रहों के लिए विधि के साथ हवन करके इन्द्र---ईश्वर

मरुदुगण-लोकपाल और विश्वकर्मा के लिए विधान के अनुसार हो

आहुत्तियाँ देनी चाहिए ।२६। पूर्व दिशा में जो बहवृच स्थित हैं उनको

रात्रि सूक्त, रौद्र, पवमान, सुमङ्गल और पुरुष सूक्तं का पृथक्‌ जाप

करना चाहिए्‌।३०। जो यजुर्वेदके ज्ञाता ऋत्विज दक्षिण दिशा में स्थित

रहते हैं उनको शाक्र (इन्द्र का सूक्त-रौद्र (रुद्रदेव का सूक्त) सोम्य

अर्थात्‌ सोम का सूक्त--ऋष्ताण्ड-जातवेदस ओर सार अर्थात्‌ सूयं के

मन्त्रों का जाप करना चाहिए ।३१। पश्चिम दिशा को समलंकृत करके

द्वार पर रामाधित जो सामकेदी पारगामी ऋत्विज समवास्थित हैं उन्हें

वैराज्य, पौरुष सूक्त, सौवर्ण, सद्रसंहितार, शिव, पञ्चनिधन गायत,

ज्येष्ठ सोम-वामदेत्य, बृहत्साम, रौरव, सरथन्तर, गौओं का ब्रत,काण्व

रक्षोध्न तथा वयस इन सवका है राजन्‌ ! गायन करना चाहिए ।३२।

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