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* पुराण परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क
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झज्ाडू तथा इन्दु--इन नामोंसे क्रमशः चन्दन, अगर, कर्पूर,
दधि, दूर्वा, अक्षत तथा अनेक रल, पुष्पों एवं फल आदिसे
चन्द्रमाको अर्ध्य दे । प्रत्येक दिन जैसे-जैसे चन्द्रमाकी वृद्धि हो
वैसे-वैसे अर्घ्यम भी वुद्धि करनी चाहिये । अर्घ्य इस मन्त्रसे
{उत्तरपर्व १३ | ८६-८७)
"हे रमानुज ! आप प्रत्येक मासके अन्तमे नवीन-नवीन
रूपमे आविर्भूत होते रहते हैं। तीन अग्रियोसे समन्वित
देवताओंको आप ही हविष्यके द्वारा आप्यायित करते हैं।
आपकी उत्पत्ति क्षीरसागरके मन्धनसे हुई है। आपकी आभासे
ही दिशा-विदिशाएँ, आभासित होती हैं। गगनरूपी आँगनके
आप सत्स्वरूपी देदीप्यमान दीपक हैं। आपको नमस्कार है।'
चन्द्रमा अर्घ्य निवेदिते कर यह अर्व ब्राह्मणक दे दे ।
अनन्तर मौन होकर भूमिपर पद्मपत्र बिछकर भोजन करे।
पलाश या अशोकके पक्रोंड्रारा पत्ित्र भूमि या शिव्मतलका
झोधन कर इस मन्त्रसे भूमिकी प्रार्थना करनी चाहिये---
त्वत्तले भोक्तुकामोऽहं देवि सर्वरसोद्धवे ॥
मदनुग्रहाय सुस्वादै कुर्वत्रममृतोपमम् ।
(उत्तर्पर्ष १३ । ९०.९१)
सम्पूर्ण ररर उत्पन्न करनेवाली हे पृध्वी देवि ! आपके
आश्रयमे मैं भोजन करना चाहता ह । मुझपर अनुग्रह करनेके
रि
लिये आप इस अन्नको अमृतके समान उत्तम स्कादयुक्त
बना दें।
अनन्तर शाक तथा पक्कान्नका भोजन करे । भोजनके बाद
आचमन करे और अज्ञॉका स्पर्श कर चन्द्रमाका ध्यान करते
हुए भूमिपर ही शयन करे। द्वितीयाके दिन क्षार एवं
लथणरहित हविष्यका भोजन करना चाहिये । तृतीयाको नीवार
(तिन्री) तथा चतुर्थीकरों गायके दूधसे बने उत्तम पदारथौको
ग्रहण करना चाहिये। पञ्चमीको घृतयुक्त कृदारान्न (खिचडी)
ग्रहण करना चाहिये । इस भद्रत्रतमे सावां, चावल, गायका
चृत तथा अन्य गव्य पदार्थ एवं अयाचित ग्राप्त वन्य फल
प्रास्त माने गये है । अनन्तर प्रातःकाल स्नानकर पितरोका
तर्षणकर ब्राह्य्णोको भोजन कराकर उन्हें दान-दक्षिणा आदि
देकर चिदा करना चाहिये । बादमें भृत्य एवै बन्धुजनोकि साथ
स्वये भी भोजन के ।
इस प्रकार तीन-तीन महीनोतक चार भद्र-व्रतौका जो
वर्षपर्यन्त भक्तिपूर्वक प्रमादरहित होकर आचरण करता है, उसे
चन्द्रदेव प्रसन्न होकर श्री, विजय आदि प्रदान करते है । जो
कन्या इस भद्रव्रतका अनुष्ठान करती है, यह शुभ पतिको प्राप्त
करती है । दुर्भगा स्री सुभगा एवं साध्वी हो जाती है तथा नित्य
सौधाग्यको प्राप्त करती है । राज्यार्थी राज्य, धनाथीं धन और
पुत्री पुत्र प्राप्त करता है। इस भद्रत्रत्के करनेसे स्ीका उत्तम
कुले विवाह होता है तथा वह उत्तम शय्या, अन्न, यान,
आसन आदि शुभ पदार्थोंको प्राप्त करती है तथा पुरुष घन,
पुत्र, सके साथ ही पर्वजन्पके ज्ञानको भी प्राप्त कर लेता है ।
{अध्याय १३)
यमद्वितीया तथा अशुन्यशयन-मत्रतकी विधि
` भगवान् श्रीकृष्ण बोले-- राजन् ! कार्तिक मासके
शुक्ल पक्षकी द्वितीया तिधिको यमुनाने अपने घर अपने भाई
यमको भोजन कराया ओर यमलोके बड़ा उत्सव हुआ,
इसलिये इस तिथिका ताम यमद्वितीया है । अतः इस दिन
भाईको अपने घर भोजन न कर बहिनके घर जाकर प्रेमपूर्वक
उसके हाथका बना हुआ भोजन करना चाहिये । उससे बल
और पुष्टिकी वृद्धि होती है। इसके बदले बहिनको
स्वर्णालंकार, वस्त्र तथा द्रव्य आदिसे संतुष्ट करना चाहिये।
यदि अपनी सगी बहिन न हो तो पिताके भाईकी कन्या,
मामाकी पुत्री, मौसी अथवा बुआकी बेटी--ये भी बहिनके
समान हैं, इनके हाथका बना भोजन करें। जो पुरुष
यमद्वितीयाकों गहिनके हाथका भोजन करता है, उसे धन,
यदा, आयुष्य, धर्म, अर्थ और अपरिमित सुखकी प्राप्ति
होती है।
राजा युधिप्लिरने पूछा--भगवन् ! आपने बताया कि
सब घर्मॉका साधन गृहस्थाश्रम है, वह गृहस्थाश्रम खी और