Home
← पिछला
अगला →

काण्ड २० सूक्त २१ १७

५१३४. अर्वावतो न आ गह्यथो शक्र परावतः । उ लोको यस्ते अद्रिव इन्द्रेह तत आ गहि!

हे वज्रधारक इन्द्रदेव ! आप समीपस्य प्रदेश से हमारे पास आएँ । दूरस्थ देश से भी आएँ। आपका जो

उत्कृष्ट लोक है, वहाँ से भी आप यहाँ पधारें ॥४ ॥

५१३५. इन्द्रो अङ्ग महद्‌ भयमभी षदप चुच्यवत्‌। स हि स्थिरो विचर्षणिः ॥५ ॥

युद्ध मे स्थिर रहने वाले विश्वद्रष्टा इन्द्रदेव महान्‌ पराभवकारी तथा भय को शीघ्र ही दूर करते हैं ॥५ ॥

५१३६. इन्द्रश्च मृडयाति नो न नः पेश्चादधं नशत्‌ । भद्रं भवाति नः पुरः ॥६ ॥

यदि इनदरदेव हमें सुख प्रदान करें, तो पाप हमे नष्ट नहीं कर सकते, वे हर प्रकार से हमारा कल्याण

ही करेगे ॥६ ॥ -

५९३७. इन्दर आशाभ्यस्परि सर्वाभ्यो अभयं करत्‌। जेता शत्रून्‌ विचर्षणि: ॥७ ॥

शत्रु विजेता, प्रज्ञावान्‌ इन्द्रदेव सभी दिशाओं से हमें निर्भय बनाएँ ॥७ ॥

[ सूक्त- २१ ]

[ ऋषि- सव्य । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती, १०-११ त्रिष्टप्‌ ।]

५९३८. न्युरेषु वाचं प्र महे भरामहे गिर इन्द्राय सदने विवस्वतः ।

नू चिद्धि रतनं ससतामिवाविदन्न दुषटुतिर्द्रविणोदेषु शस्यते ॥९॥

हम विवस्वान्‌ के यज्ञ में महान्‌ इन्द्रदेव की उत्तम वचनों से स्तुति करते हैं । जिस प्रकार सोने वालों का धन

चोर सहजता से ले जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रदेव ने (असुरो के) रत्नों को प्राप्त किया । धन दान करने वालों की

निन्दा करना उचित नहीं है ॥१ ॥

५१३९. दुरो अश्वस्य दुर इन्द्र गोरसि दुरो यवस्य वसुन इनस्पति: ।

शिक्षानरः प्रदिवो अकामकर्शनः सखा सखिभ्यस्तमिदं गृणीमसि ॥२ ॥

हे इद्धदेव ! आप अश्वौ, गौ ओं तथा धन-धान्य के देने वाले हैं। आप सबका पालन-पोषण करते हुए उन्हें

उत्तम कर्म की प्रेरणा प्रदान करने वाले तेजस्वी वीर है । आप संकल्पो को नष्ट न करने वाते तथा मित्रों के भी मित्र

हैं। इस प्रकार हम आपकी स्तुति करते हैं ॥२ ॥

५१४०. शचीव इन्द्र पुरुकृद द्युमत्तम तवेदिदमभितश्चेकिते वसु ।

अतः संगृभ्याभिभूत आ भर मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः ॥३ ॥

शक्तिशाली, बहु-कर्मा, दीप्तिमान्‌ हे इन्द्रदेव ! सम्पूर्ण धन आपका ही है- यह सर्वज्ञात है । हे विजेता !

उस धन को एकत्रित करके (उपयुक्त स्थानो पर) पहुँचा दें आप अपने प्रशंसकों की कामना पूरी करने में

कृपणता न करें ॥३ ॥

५१४१. एभिर्युभिः सुमना एभिरिन्दुभिर्निरुन्थानो अमर्ति गोभिरश्विना ।

इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभिरयुतदरेषसः समिषा रभेमहि ॥४ ॥

तेजस्वी हवियों और तेजस्वी सोमरस द्वारा तृप्त होकर हे इन्द्रदेव ! हमें गौओं और घोड़ों (पोषण और प्रगति)

से युक्त धन को देकर हमारी दरिद्रता का निवारण करें । सोमरस से तृप्त होने वाले, उत्तम मन वाले इन्द्रदेव के

द्वारा हम शत्रुओं को नष्ट करते हुए द्ेषरहित होकर अन्न से सम्यक्‌ रूप से हर्षित हों ॥ड ॥

← पिछला
अगला →