२९६ ] [ ब्रह्माण्ड पुराण
पुरा यत्रहरेणापि निविष्टं न महात्मना ।
त्रिपुरस्य विनाशाय कृतो यत्नो महीपते ॥।४
तत्र कि वर्ण्यते पुण्यं चरणां देवस्वरूपिणाम् ।
सदृष्ट्वा नमंदां भूप भार्गवः कुलनन्दनः ॥५
नमश्चकार सुप्रीतः शत्र्साधनतत्पर: ।
नमोऽतु नमेदे तुभ्यं हरदेहसमुद्भवे ॥॥६
क्षिप्रं नाणय शत्रून्मे वरदा भव शोभने ।
इत्येवं स नमस्कत्य नमंदां पापनाशिनीम् ॥७
श्री वसिष्ठ जी ने कहा--भगवान् श्री कृष्ण के अन्तद्धनि हौ जाने पर
सुमहान् यश वाले परशुराम ने इसके उपरान्त अपने आपको श्रीकृष्ण चन्द्र
के अनुभाव समृद्रिक्त मान लिया था अर्थात् अपने आपको उच्चस्तरीय
व्यक्ति मान लिया था ।१। अकृतव्रण से समन्वित होकर जलती हुईं अग्नि
के ही समान जलता हुआ यह भार्गव राम माहिष्मती नगरी की ओर आ
गया थाः।२। यह पुरी बह पर थी जहाँ पर समस्त सरिताओं में परम
श्रो छ-पुष्य प्रदा ओर पापों का हरण करने वाली नर्मदा नाम वाली नदी
बहती है । यह नदी बहती है । यह नदी केवल दर्शन मात्र ही से महापापी
प्राणियों को पुनीत बना दिया करती है ।३) हे महीपते ! प्राचीन काल में
त्रिपुर के हनन करने वाले भगवान् शम्भु ने भी जो कि महान् आत्मा वाले
हैं यहीं पर निविष्ट होते हुए त्रिपुरासुर के विनाश के लिये यत्न किया था
।४। वहाँ पर जो भी मनुष्य हैं बे महापुण्य शाली देवों के समान स्वरूप वाले
हैं। उनके महान् पुण्य काक्या वर्णन किया जावे अर्थात् उनका पुण्य तो
अवर्णतीय है । उस भागंव परश् राम ने जो अपने कुल को अभिनन्दित
करने वाले थे, हे भूप ! उस पुण्यमयी परम पावनी नदी का दर्शन किया
था ।५। फिर राम ने जो अपने महाशच्रु कात्तंवीयं के साधन करने में परा-
यण थे परम-प्रीनिमान् होकर नर्मदा को प्रणाम किया था गौर सविनय
प्रार्थना की थी कि हे नर्मदे! आप तो साक्षात् भगवान् शक्कर के. देह से
शरीर धारण करने वाली हैं। आपकी सेवा में मेरा प्रणिपात स्वीकार होवे
।६। हे शोभने ! मेरा यही विनम्र निवेदन है कि आप मेरे शत्रुओं का बहुत
ही शीघ्र विनाश करने की मेरे ऊपर अनुकम्पा कीजिए और मेरे लिए वर-