झट अथर्ववेद संहिता भाग-९
हे दर्शनीय सोम !आप दर्शन करने योग्य हैं ।आप अनेक कलाओं द्वारा विकसित होकर (पूर्णिमा पर) समग्र
हो जाते हैं । आप स्वयं पूर्ण है अतएव हमको भी अश्व, गौ, सन्तान, घर एवं धनादि से अन्त तक परिपूर्ण रखें ॥४ ॥
१९५२. योइस्मान् दवेष्टि यं ययं द्विष्मस्तस्य त्वं प्राणना प्यायस्व ।
आ वयं प्याशिषीमहि गोभिरश्चै प्रजया पशुभिर्गृहैर्धनेन ॥५ ॥
हे सोमदेव ! जो शत्र हमसे द्वेष करते हैं, उनसे हम भी देष करते है । आप उन शत्रुओं के प्राणों (को खचकर
उन) से आगे बढ़ें । हमें भी अश्र, गौ आदि पशु एवं घर्, घनादि द्वारा सम्पन्न करें ॥५ । ।
१९५३. यं देवा अंशुमाप्याययन्ति यमक्षितमक्षिता भक्षयन्ति
तेनास्मानिनदरो वरुणो बृहस्पतिरा प्याययन्तु भुवनस्य गोपाः ॥६ ॥
जिन एक कलात्मक सोमदेव को देवता शुक्लपक्ष में प्रतिदिन एक-एक कला से बढ़ाते हैँ । जिस क्षयरहित
सोम का अविनाशीदेव भक्षण करते हैं । देवाधिपति इन्द्रदेव, वरुणदेव एवं बृहस्पतिदेव उस सोम के द्वारा हमारा
कल्याण करते हुए हमें आगे बढ़ाएँ ॥६ ॥ ।
[ ८७ - अग्नि सूक्त (८२) ]
[ ऋषि- शौनक । देवता- अग्नि । छन्द. त्रिष्टप २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती ।]
१९५४. अभ्यर्चत सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि घत्त।
इमं यज्ञं नयत देवता नो धृतस्य घारा मधुमत् पवन्ताम् ॥९ ॥
हे गौ (वाणी) ! सुन्दर तव द्वारा आप अग्नि की अर्चना करं एवं हमें कल्याणकारी धन प्रदान करे । हम
इस यज्ञ में देवताओं को लाएँ और आपको कृपा से यज्ञ में घृत की धाराएँ मधुर भाव से देवताओं को ओर चलं ॥१॥
१९५५. मय्यग्रे अग्निं गृहणामि सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन।
मयि प्रजां मय्यायुर्दधामि स्वाहा मव्यग्निम् ॥२ ॥
हमं सर्वप्रथम आहुतियों के आधार अग्नि को घारण करते हैं, क्षात्र-शौर्य एवं ज्ञान के तेज के साथ अग्नि
को धारण करते हैं । हमे प्रजा एवं आयुष्य प्राप्त हो, इस निमित्त हम अग्निदेव को समिधादि समर्पित करते हैं ॥२ ॥
१९५६. इहैवाग्ने अधि धारया रयि मा त्वा नि क्रन् पूर्वचित्ता निकारिण: ।
क्षत्रेणाग्ने सुयममस्तु तुभ्यमुपसन्ता वर्धतां ते अनिष्टूटत: ॥३ ॥
हे अग्निदेव ! हमसे वैर भाव रखने वालों पर आप प्रसन्न न हों । हम आपकी मेवा करते हैं, आप हम पर
प्रसन्न होकर हमें ऐश्वर्यशाली बनाएँ । आप अपने रूप में बल सहित स्थिर हों । आपकी सेवा करने वाले का प्रभाव
बढ़े और वह सच प्रकार समृद्ध हो ॥३ ॥
१९५७. अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः ।
अनु सूर्य उषसो अनु रश्मीननु द्यावापृथिवी आ विवेश ॥४ ॥
उषाकाल के साथ ही अग्निदेव प्रकाशित होते है । यह जातवेदा अग्नि प्रथम उषाकाल में सूर्यरूप में प्रकट
होते हैं, पुन: दिन को प्रकाशित करते हुए अपनी प्रकाशित-किरणों द्वारा सम्पूर्ण चावापृथिवी में प्रकाश फँलाते हैं ॥
१९५८. प्रत्यम्निरुषसामग्रमख्यत् प्रत्यहानि प्रथमो जातवेदाः ।
प्रति सूर्यस्य पुरुधा च रश्भीन् प्रति द्यावापृथिवी आ ततान ॥५ ॥