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३०८ ] [ मत्स्यपुराण

साम हुआ करता है । २-३ । इन दोनों मे अतथ्य साम साधु पुरुषों के

आक़ोश के लिये ही हुआ करता है। है नरोत्तम ! उममें प्रयत्नपूर्वक

साधु साम ही साध्य होना चाहिये ।४। महान्‌ कुलीन, हुआ करते हैं ।

उनमें कभी भी अतथ्य साम का प्रयोग नहीं करना चाहिये । तथ्य साम

का ही प्रयोग करना चाहिये जिसमें कुल और शील आदि का वर्णन

होता है तथा किये हुए उसके उपचारों का वर्णन किया जाता है।

।१-६।

अनयैव तथा युक्तया कृतज्ञाख्यापन स्वकम्‌ ।

एवं साम्ना च कत्त व्या वशगा धमेतत्पराः ।७

साम्ना यद्यपि रक्षांसि गृह्णन्तीति पर? श्र्‌ ति:

तथाप्येतदसाधूनां प्रयुक्तं नोपकारम्‌ ।=

अतिशड्ितमित्येवं पुरुषं सामवादिनम्‌ ।

असाधवो विजानन्ति तस्मात्तत्त षु वजंयेत्‌ ।&€

ये श्‌ ढावंशा ऋजव:प्रणीता धमं स्थिताः सत्यपराविनीताः

ते सामसाध्ताःवुरुषाःप्रदिष्टा मानोन्नता ये सततञ्च राजन्‌ ।१०

इसी युक्ति से अपनी कृतज्ञता का ख्यापन इस प्रकार से साम के

द्वारा घमं मे परायण मनुष्य अपने वशवर्ती करने चाहिए ।७। यद्यपि

साम के द्वारा राक्षस भी ग्रहण किये जाते हैं--ऐसी पराश्र॒ति है तो भी

असाधु पुरुषों में प्रयोग किया हुआ यह-कभी उपकारे करने वाला नहीं

होता है ।८। जो असाधु पुरुष होते हैं वे सामवादी पुरुष को अतिशक्षिल

है--ऐसा ही हमेशा जाना करते हैं। इसीलिए इस साम का प्रयोग

उनमें वजित ही कर देना चाहिए । जो शुद्ध वंश वाले-सरल सीधे-प्रणीत-

धमं में स्थित-सत्य परायण और विनीत पुरुष हैं उन्हीं पुरुषों को साभ

के द्वारा साध्य कहा गया है | है राजन ! जो निरन्तर ही मानोन्मल

होते है वे ही साम से साध्य हुआ करते हैं ।६-१०।

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