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+ आपद्यते +

[ अ. ९३

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उत्पन्न हूओंको साथ लिये वह बनिजारोंका समूह बरार

आगे ही बढ़ता रहता है । वीरवर ! उनमेंसे कोई भी प्राणी

न तो आजतक वापस लौटा है और न किसीने इस

सङ्कदयपूर्ण मार्ककों पार करके परमानन्दमय योगकी ही

शरण ली है ॥ १४ ॥ जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालॉकों जीत

लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वीमें “यह मेरी है' ऐसा

अभिमान करके आपसमें वैर ठानकर संग्रामभूमिमें जूझ

जाते हैं। तो भी उन्हें भगवान्‌ विष्णुका ह अविनाशी पद

नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसोंको प्राप्त होता है ॥ १५॥

इस भवाटवीमें भटकनेवाला यह बनिजारोंका दल

कभी किसी लताकी डालियोंका आश्रय लेता है और

उसपर रहनेवाले मधुरभाषी पश्षियोकि मोहमें फैंस जाता

है। कभी सिंहोंके समूहसे भय मानकर बगुला, कंक और

गिद्धोंसे प्रीति करता है ॥ १६ ॥ जब उनसे धोखा उठाता

है, तब हंसोंकी पंक्तिमें प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे

उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरोंमें मिलकर

उनके जातिस्वभावके अनुसार दाम्पत्य-सुखमें रत रहकर

विषयभोगोंसे इन्द्रियो तृप्त करता रहता है और एक

दूसरेका मुख देखते-देखते अपनी आयुकी अवधिको भूल

जाता है॥ १७ ॥ वहाँ वृक्षि क्रीडा करता हुआ पुत्र और

स्त्रीके स्नेहपाशमें बैंध जाता है। इसमें मैथुनकी वासना

इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरहके दुर्व्यवहारोंसे दीन

होनेपर भी यह विवश होकर अपने बन्धनको तोडनेका

साहस नहीं कर सकता। कभी असावधानीसे पर्वतकी

गुफामें गिरने लगता है तो उसमें रहनेवाले हाथीसे डरकर

किसी लताके सहारे लटका रहता है ॥ १८ ॥ शत्रुदमन !

यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्तिसे छुटकारा मिल जाता

है, तो यह फिर अपने गोलमें मिल जाता है। जो मनुष्य

मायाकी प्रेरणासे एक बार इस मार्ममें पहुँच जाता है, उसे

भटकते-भटकते अन्ततक अपने परम पुरुषार्थका पता

नहीं लगता ॥ १९॥ रहूगण ! तुम भी इसी मार्गमें भटक

रहे हो, इसलिये अब प्रजाको दण्ड देनेका कार्य छोड़कर

समस्त प्राणियोंके सुहृद्‌ हो जाओ और बिषयोंमें अनासक्त

होकर भगयत्‌-सेवासे तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग

लेकर इस मार्गकों पार कर लो॥ २० ॥

राजा रहृगणने कहा--अहो ! समस्त योगनियोमें यह

मनुष्य-जन्प ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकम प्राप्त होनेवाले

देवादि उत्कृष्ट जन्मोसे भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान्‌

हृषीकेशके पवित्र यशसे शुद्ध अन्त-करणवाले आप-जैसे

महात्मा ओका अधिकाधिक समागम नहीं मिलता ॥ २१॥

आपके चरणकमलॉकी रजका सेवन करनेसे जिनके सारे

पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावोंको भगवान्‌की

विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा

तो आपके दो घड़ीके सत्सज़से ही सारा कुतर्कमूलक

अज्ञान नष्ट हो गया है ॥ २२ ॥ बह्मज्ञानियॉमें जो वयोवृद्ध

हों, उन्हें नमस्कार है, जो शिशु हों, उन्हें नमस्कार है; जो

युवा हों उन्हें नमस्कार है। जो क्रीडारत बालक हों,

उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण अवधूतवेषसे

पृथ्वीपर विचरते हैं, उनसे हम-जैसे रेर्योन्त्त राजाओंका

कल्याण हो ॥ २३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते है--उत्तरानन्दन ! इस प्रकार

उन परम प्रभावशाली ब्रह्मर्षिफ़ले अपना अपमान

करनेवाले सिन्धुनरेश रहृगणकों भी अत्यन्त करुणावश

आत्पतत्वका उपदेश दिया। तव राजा रहूगणने दीनभावसे

उनके चरणोंकी वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्रके

समान शान्तचित्त और उपरतेन्द्रिय होकर पृथ्वीपर विचरने

लगे ॥ २४ ॥ उनके सत्सङ्गसे परमात्मतत्त्वका ज्ञान पाकर

सौवीरपति रहृगणने भी अन्तःकरणमे अविच्चावश

आरोपित देहात्मवुद्धिको त्याग दिया। राजन्‌ ! जो

लोग भगवदाश्रित अनन्य भ्क्तोंकी शरण ले लेते है,

उनका ऐसा ही प्रभाव होता है---उनके पास अविद्या ठहर

नहीं सकती ॥ २५॥

राजा परीक्षितले कहा--महाभागवत मुनिश्रेष्ठ !

आप परम विद्वान्‌ हैं। आपने रूपकादिके द्वारा

अप्रव्यक्षरूपसे जीवॉके जिस संसाररूप मार्गका वर्णन

किया है, उस विषयक्री कल्पना विवेकी पुरुषोंकी बुद्धिने

की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषोंकी समझमें सुगमतासे

नही आ सकता। अतः मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध

विषयको रूपकका स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दोंसे

खोलकर समझाइये॥ २६ ॥

नैतैः के के के

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