रेड
संक्षिम्त नारदपुराण
हुआ निरुक्त-वर्णन
सनन्दनजी कहते हैं-- अब मैं निरुक्तका वर्णन
करता हूँ, जो वेदका क़र्णरूप उत्तम अङ्ग है। यह
वैदिक धातुरूप है, इसे पाँच प्रकारका बताया गया
है॥ १॥ उसमें कहीं वर्णका आगम होता है, कहीं
वर्णका विपर्यय होता है, कहीं वर्णोका विकार
होता है ओर कहीं वर्णका नाश माना गया
है॥२॥ नारद! जहाँ वर्णोक विकार अथवा
नाशद्वारा जो धातुके साथ विशेष अर्थका प्रकाशक
संयोग होता है, वह पाँचवाँ उत्तम मोग कहा गया
है ॥२॥ वण्कि आगमसे "हंसः: ' पदकी सिद्धि
होती है। वर्णोके विपर्यय (अदल-बदल) -से
“सिंहः: ' पद सिद्ध होता है। वर्णविकारसे गुढोत्माः '
की सिद्धि होती है। वर्णनाशसे " पृषोदर“ ' सिद्ध
होता है ॥ ४ ॥ ' भ्रमर" आदि शब्दोंमें पाँचवाँ योग
समझना चाहिये । वेदोपें लौकिक नियमोंका विकल्प
या विपर्यय कहा गया है । यहाँ ' पुनर्वसुः ' पदको
उदाहरणके रूपमे रखना चाहिये ॥ ५ ॥ ' नभस्वत्"
में "वत् प्रत्यय परे रहते भसंज्ञा हो जानेसे 'स'का
स्त्व नहीं हुआ। (वार्तिक भी है--'नभोःड्लिरोमनुर्षा
वत्युपसंख्यानम्') 'वृषन् अश्वो यस्य सः' इस
इस अवस्थामें अन्तर्वर्तिनी विभक्तिका आश्रय
लेकर पदसंज्ञा करके नकारका लोप प्राप्त था,
किंतु 'वृषण् वस्वश्वयोः ' इस वार्तिकके नियमानुसार
भसंज्ञा हो जानेसे न लोप नहीं हुआ; अतः
"वृपणश्चः' यही वैदिक प्रयोग है। (लोकमें
"वृषाश्वः' होता है।) कहीं-कहीं आत्मनेपदके
स्थानम परस्मैपदका प्रयोग होता है । यथा--' प्रतीपमन्य
ऊर्मिर्युध्यति' यहाँ युध्यते" होना चाहिये, किंतु
परस्मैपदका प्रयोग किया गया है। 'प्र' आदि
उपसर्ग यदि धातुके पहले हों तो उनकी उपसर्ग
एवं गतिसंज्ञा होती है; किंतु वेदमें वे धातुके
बादमें या व्यवधान देकर प्रयुक्त होनेपर भी
"उपसर्ग ' एवं “गति' कहलाते हैं--यथा "हरिभ्यां
याह्योक आ। आ भैर हरिभिर्याहि।' यहाँ
*आयाहि' के अर्थमें * याहि+आ' का व्यवहित
तथा पर प्रयोग दै। दूसरे उदाहरणमे आ+याहिके
बीचमें बहुत-से पदोंका व्यवधान है ॥६॥ वेदमें
विभक्तियोंका विपर्यास देखा जाता है, जैसे-' दक्षा
जुहोति'; यहाँ 'दुधि' शब्द 'हु' धातुका कर्म है,
उसमें द्वितीया होनी चाहिये, किंतु 'तृतीया च
विग्रहमें बहुव्रीहि समास होनेपर 'वृषन्+अश्व:' | होश्छन्दसि" इस नियमके अनुसार कर्ममें तृतीया
१. हन्तीति हंस: इस व्युत्पत्तिक अनुसार हन्- धातुके आगे (' बृतृवदिहनि०' इत्यादि उणादि सूत्रसे) 'स'का आगम
होतेसे 'हंस' शब्द बनता हैं। २. “हिसि हिंसायाम्' इस धातुसे 'हिनस्तीति' इस व्युत्पत्तिक अनुसार कर्त्र्थमें अचू
प्रत्यय करमैपर पहले 'हिंस:' बनता है, फिर “पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्'के आदेशानुसार 'ह' के स्थानमें 'स" और
"स" के स्थानमें 'ह' आ जानेसे 'सिंह:' पद सिद्ध होता है। ३. 'गृढ् ^ आत्मा ' इस अवस्थामें 'आ' विकृत हो "उ"
के रूपमें परिणत हुआ और गुण होनेसे 'गुडोत्मा' बना। (एप सर्वेषु भूतेषु गृढोत्मा न प्रकाशते) । ४. “पृोदर: ' पे
*पृषद्- उदरः" यह पदच्छेद है। 'पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् के आदेशानुसार यहाँ तकारका लोप (नाश) हुआ तथा गुण
होनेसे “पृथोदर: ' सिद्ध हुआ है। ५. 'भ्रमतीति भ्रमरः ' यहाँ * भ्रमु अनवस्थाने 'से 'अर्तिकमिभ्रमिचमिदेविवासिध्यक्षित्'
इस उणादि सूत्रके अनुसार ' अर' प्रत्यय होनेसे ' भ्रपर' शब्द सिद्ध होता हैं। किन्हीं विद्रानोकि मतम * भ्रमन् रौति" इस
व्युत्पत्तिक अनुसार ' भमर" शब्द बनता है। इसमें ` भ्रमूनअतृ-रु-अच्' इस अवस्धामें 'तृ'का लोप "रुभे उका लोप
कने ' भ्रमर को सिद्धि होती हैं। ६. लौकिक प्रयोगमें "पुनर्वसु" शब्द नित्य द्विवचनान्त है, किंतु बेदमें " छन्देसि
पुनर्वस्वोरेकबचनम् 'के नियमानुसार इसका एकवचनान्त प्रयोग भी होता ईै।