म्रध्यपपर्व, तृतीय भाग ] = दिव्य, भौप एवं अन्तरिक्षजन्य उत्पात तथा उनकी झाकिके उपाय «
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यदि उष्यृक, गृध, करए आदि भीषण ध्वनि करते हों
तथा भयंकर नृत्य करते हों तो मृत्युकी आदौकर होती है,
जलती हुई आगके समान धूमकेतुका दिखल्प्यौ पड़ता,
जमीनका खिसकता मालूम होना--ऐसी स्थितिमें राजा पीड़ित
होता है, यन्यमे अकाल पढ़ता है तथा अनेक प्रकारके अनिष्ट
होते हैं। इनकी शान्तिके लिये स्वर्णछत्रयुक्त सात घोड़ोंसे युक्त
सूर्यमण्डप बनाकर ब्राह्मणको दान करे । बिल्वपत्र भी दे, देर
मनत्रसे हवन करें। यदि अकस्मात् झाल, ताल, अश्च, खदिर.
कमल आदि घरके अंदर ही उत्पन्न हों तो ये सभी केतुप्रहजन्य
दोष है ¦ इनकी झाच्तिके लिये 'व्यप्यकं- (यजुः ३। ६०)
इस मखसे दहो, मधु, पृतसे दस हजार आहुतियाँ दे तथा चर्
भी प्रदान करे। नीली सवत्सा पयस्विनी गाय, यस, केतुकौ
प्रतिमा आदि ब्राह्मणको दान करे ।
दक्षिण दिज्ञामें अपनी छाया अपने पैरके एकदम समीप
आ जाय और छायामें दो या पाँच सिर दिखत्पयी दें अथवा
छिल्र-भिन्न रूपमे सिर दिखत्वयी दे तो देखनेवालेकी सप्नाहके
भीतर ही मृत्युकी आशंका होती है। कौआ, बिल्ल, तोता
तथा कपोतका मैथुन दिखतायी दे तो ये दुर्निभित गहुजन्य
उत्पात हैं। इनकी शान्तिके लिये इनिवारके दिन झनिके निमित्त
दस हजार आहुतियाँ देनी चाहिये। अर्क-पुष्पसे झनिकी पूजा
करे तथा चस्से सौ बार आहुति दे। बाप और दक्षिणके क्रमते
यदि काहु, पैर तथा आँखें स्यन्दन हो तो इससे मृत्युका भय
होता है। यह सोमप्रहजनित दुर्निभित है । पुस्तक, यज्ञोपचीत,
चरु तथा इन्द्र-ध्वजमें आग लग जाय तो यह सूर्यजन्य
दुर्तिमितत है। इसकी दन्तकः लिये सूर्यके निमित्त तरिमधुयुक्त
कनेरके पुष्पोंसे आहुतिया देनी चाहिये । जिन प्रहोंका दुर्निमित्त
दिखलायो दे, उसकी झाक्तिके लिये ग्रहों तथा उसके
अपिदेवल और प्रत्यपिदेवदाके निमिल भी विधिपूर्वक
पूजन-हवन-स्तथन, दान आदि करना चाहिये। विधिके
अनुसार क्रिया न करनेसे दोष होता है। अतः ये सभी
शान्त्यादि कर्म दास्ये विधानके अनुसार हो करने चाहिये।
इससे झास्ति प्राप्त होती है और सर्वविध कल्याण-मज़ल होता
है।
(अध्याय २०)
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॥ मध्यम्रपर्थ, तृतीय भाग सम्पूर्ण ॥
॥ भविष्यपुराणान्तर्गत मध्यमपर्व सम्पूर्ण ॥