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पूर्वभाग-द्वितोय पाद

पञ्चगवम्‌।' दशानां ग्रामाणां समाहारः दशग्रामी (यहाँ

स्त्रलिङ्गसूचक “ङीप्‌ प्रत्यय हुआ है)। त्रयाणां

फलानां समाहारः त्रिफला (इसमें स्त्रीत्वसूचक

"टाप्‌" प्रत्यय हुआ रै) । त्रिफला-शब्द आँवले, हर

और बहेड़ेके लिये रूढ (प्रसिद्ध) है ॥९१-९२॥

नीलोत्पलं महाषध्री तुल्यार्थे कर्मधारयः ।

अक्रह्मणो नचि प्रक्तः कुम्भकारदिकः कृतः ॥ ९३ ॥

समानाधिकरण तत्पुरुषकी 'कर्मधारय' संज्ञा

होती है। उसके दोनों प प्राय: विशेष्य-विशेषण

होते हैं। विशेषणवाचक शब्देका प्रयोग प्रायः पहले

होता है।'नील॑ च तत्‌ उत्पलं च-नीलोत्पलम्‌, महती

चासौ षष्ठी च+महायष्टी।” जहाँ 'न' शब्द किसी

सुबन्तके साथ समस्त होता है, बह नञ्‌ तत्पुरुष'

कहलाता है। "न ऋह्मणः अब्राह्मणः ' इत्यादि। कुम्भकार

आदि पदोर्मे “उपपद तत्पुरुष' .समास है॥९३॥

अन्यार्थे तु बहुब्रीहौ ग्राम: प्राप्तोदको द्विज ।

पञ्चगू रूपवद्धायों मध्याह: ससुतादिकः ॥ ९४॥

विप्रवर! जहाँ अन्य अर्थक प्रधानता हो, उस

समासकी बहुत्रीहि गणना होती. है । ' प्रासम्‌ उदकं

य॑ स प्राप्तोदको ग्राम: (जहाँ जल पहुँचा हो, वह

ग्राम 'प्रासोदक' है) । इसी तरह--* पञ्च गावो यस्य स

पञ्छगुः। रूपवती भार्या यस्य स रूपवद्भार्यः

मध्याः - पद तत्पुरुष समास है। "सुतेन सह आगतः

ससुतः ' आदि पद बहुत्रीहि समासके अन्तर्गत हैं॥ ९४॥

समुच्यये गुरु चेशं भजस्वान्वाचये त्वर ।

भिक्षापानय गां चापि वाक्यमेवानयोभवित्‌॥ ९५॥

चार्थमे द्वनद्र समास होता है। ' च' के चार अर्थ

है- समुच्चय, अन्वाचय, इतेतरयोग और समाहार ।

परस्पर निरपेक्ष अनेक पर्दोका एकम अन्वय होना

" समुच्चय" कहलाता है। समुच्चयमें “ईशं गुरु च

भजस्व' यह वाक्य है। इसमें ईश और गुरु दोनों

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स्वतन्त्ररूपसे ' भज' इस क्रियापदसे अन्वित होते हैं।

ईंश-पदका क्रियाके साथ अन्वय हो जानेपर पुनः

क्रियापदकी आवृत्ति करके गुरुपदका भी उसमें अन्वय

होता है। यही उन दोनोंकी निरपेक्षता है। समास

साकाडृक्ष पदोंमें होता है। अत: समुच्चय-वाक्यमें रनर

समास नहीं होता है। जहाँ एक प्रधान और दूसग

अप्रधानरूपसे अन्वित हो, वहाँ अन्वाचय होता है- जैसे

'भिक्षापट गाज्ञानय' इस वाक्ये भिक्षाके लिये गमन

प्रधान है और गौका लाना अप्रधान या आनुषज्जिक कार्य

है। अतः एकार्थीभावरूप सामर्थ्यं न होनेसे अन्वाचयमें

भी दन्द समास नहीं होता। समुच्चय और अन्वाचय

वाक्यमात्रका ही प्रयोग होता हे ॥ ९५ ॥

इतरेतरयोगे तु रामकृष्णौ समाइतौ।

रामकृष्णा द्विज दवौ रौ ब्रह्म चैकमुपास्यते ॥ ९६ ॥

उद्धूत अवयव-भेद-समृहरूप परस्पर अपेक्षा

रखनेबाले सम्मिलित पदोका एकधर्मावच्छिन्नमे अन्वव

होना इतरेतरयोग कहलाता है। अतः इसमें सामर्थ्य

होनेके कारण समास होता है, यथा--' रामकृष्णौ भज'

इस वाक्यम " रामश्च- कृष्णश्च रामकृष्णौ ' इस प्रकार

समास है। इतरेतरयोग द्नरमे समस्यमान पदार्थगत

संख्याका समुदायमे आरोप होता है । इसलिये वहाँ

द्विवचनान्तं या बहुवचनान्तका प्रयोग देखा जाता दै।

समृहको समाहार कहते हैँ । वह अवयवगत भेद

तिरोहित होता है। यथा-' रामश्च कृष्णश्चेत्यनयोः

समाहारः रामकृष्णम्‌।' समाहार द्वद्मे अवयवगत

संख्या समुदायमें आरोपित नही होती । इसलिये

एकत्व -ुद्धिसे एकवचनान्तक प्रयोग किया जाता

है। समाहारं नपुंसकलिङ्ग होता है । विप्रवर! इतेसतस्वोगें

राम और कृष्ण दोनों दो हैं और समाहारमें उनको

एकता है, इसलिये कि ब्रह्मरूपसे उन्हें एक

मानकर उनकी उपासना की जाती हैं ॥९६॥

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इति श्रीबवृह़त्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बहदणठ्याने द्वितीयपादं व्याकरणनिरूपणं ना द्विएाशशतमोऽध्यायः ॥५२॥

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