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नैऊत्यकोणमें शस्वागार, पश्चिममें भोजनगृह, | हैं॥ १८--२१॥

वायव्यकोणमें धान्य-संग्रह, उत्तर दिशामे धनागार | एकशाल-गृहके चार भेद हैं। अब मैं अलिन्दयुक्त

तथा ईशानकोणमें देवगृह बनवाना चाहिये। नगरमे | गृहके विषयमे बतलाता हूँ, सुनिये। गृह-वास्तु

एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल वा चतुःशाल- | तथा नगर-वास्तुमें अट्टाइस अलिन्द होते हैं। चार

गृहका निर्माण होना चाहिये। चतुःशाल-गृहके | तथा सात अलिन्दोंसे पचपन, छः अलिन्दोंसे

शाला और अलिन्द (प्राङ्गण)-के भेदसे दो सौ। बीस तथा आठ अलिन्दोंसे भी बीस भेद होते हैं।

भेद होते हैं। उनमें भी चतुःशाल-गृहके पचपन, | इस प्रकार नगर आदिमें आठ अलिन्दोंसे युक्त

त्रिशाल-गृहके चार तथा द्विशालके पाँच भेद होते | वास्तु भी होता है ॥ २२--२४॥

इस प्रकार आदि आरनेय महापुराणमे “नगर आदिके वास्तुका वर्ण नामक

एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ॥ ९०६ /

एक सौ सातवाँ अध्याय

भुवनकोष ( पृथ्वी -द्रीप आदि )-को तथा स्वायम्भुव सर्गका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! अब यै भुवनकोष

तथा पृथ्वी एवं द्वीप आदिके लक्षणोंका वर्णन

करूँगा। आग्नीध्र, अग्निबाहु, वपुष्मान्‌, द्युतिमान्‌,

मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन और क्षय-ये

प्रियत्रतके पुत्र थे। उनका दसबाँ यथार्थनामा पुत्र

ज्योतिष्मान्‌ धा । प्रियव्रतके ये पुत्र विश्वमें विख्यात

थे। पिताने उनको सात द्वीप प्रदान किये।

आग्नीध्रको जम्बूद्वीप एवं मेधातिथिको प्लक्षद्वीप

दिया। वपुष्मान्‌को शाल्मलिद्रौप, ज्योतिष्मान्‌को

कुशद्रीप, दयुतिमान्‌को क्रौञ्चद्वीप तथा भव्यको

शाकद्रीपरमे अभिषिक्त किया। सवनको पुष्करद्वीप

प्रदान किया। (शेष तीनको कोई स्वतन्त्र द्वीप

नहीं मिला।) आग्नीध्रने अपने पत्रमे लाखों

योजन विशाल जम्बूद्वीपको इस प्रकार विभाजित

कर दिया। नाभिको हिमवर्ष (आधुनिक भारतवर्ष)

प्रदान किया। किम्पुरुषको हेमकूटवर्ष, हरिवर्षको

नैषधवर्ष, इलावृतको मध्यभागे मेरुपर्वतसे युक्त

इलावृतवर्ष, रम्यकको नीलाचलके आश्रित रम्यकवर्ष,

हिरण्यवानूको श्वेतवर्ष एवं कुरुको उत्तरकुरुवर्ष

दिया। उन्होंने भद्राश्चको भद्राश्ववर्षं तथा केतुमालको

मेरुपर्वतके पश्चिमे स्थित केतुमालवर्षका शासन

प्रदान किया। महाराज प्रियव्रत अपने पुत्रोंको

उपर्युक्त दीपे अभिषिक्त करके वनमें चले गये।

वे नरेश शालग्रामक्षेत्रमें तपस्या करके विष्णुलोकको

प्राप्त हुए॥ १-८॥

मुनिश्रेष्ठ ! किम्पुरुषादि जो आठ वर्ष हैं, उनमें

सुखकी बहुलता है और बिना यत्नके स्वभावसे

ही समस्त भोग-सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। उनमें

जरा-मृत्यु आदिका कोई भय नहीं है और न

धर्म-अधर्म अथवा उत्तम, मध्यम और अधम

आदिका ही भेद है। वहाँ सब समान हैं। वहाँ

कभी युग-परिवर्तन भी नहीं होता। हिमवर्षके

शासक नाभिके मेरु देवीसे ऋषभदेव पुत्ररूपमें

उत्पन्न हुए। ऋषभके पुत्र भरत हुए। ऋषभदेवने

भरतपर राज्यलक्ष्मीका भार छोड़कर शालग्रामक्षेत्रमें

श्रीहरिकी शरण ग्रहण की। भरतके नामसे ' भारतवर्ष!

प्रसिद्ध है। भरतसे सुमति हुए। भरतने सुमतिको

राज्यलक्ष्मी देकर शालग्रामक्षेत्रमें श्रीहरिकी शरण

ली। उन योगिराजने योगाभ्यासमें तत्पर होकर

प्राणोंका परित्याग किया। इनका वह चरित्र तुमसे

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