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काण्ड-६ सुक्त- ९४ है

१५७४. जवस्ते अर्वन्‌ निहितो गुहा यः श्येने बात उत योऽचरत्‌ परीक्त: ।

तेन त्वं वाजिन्‌ बलवान्‌ बलेनाजिं जय समने पारयिष्णु ॥२ ॥

हे अश्च ! श्येन पक्षी के समान एवं वायु के समान वेग तुम्हारे अन्दर छिपा है, उसे प्रकट कर बलवान्‌ बनकर,

तीच गति से संग्राम में पार करने वाले होकर युद्ध को जीतो ॥२ ॥

१५७५. तनूष्टे वाजिन्‌ तन्वं९ नयन्ती वाममस्मभ्यं धावतु शर्म तुभ्यम्‌ ।

अहुतो महो धरुणाय देवो दिवीव ज्योतिः स्वमा मिमीयात्‌ ॥३॥

हे वेगवान्‌ अश्च ! तुम्हारे शरीर पर सवार हमारे शरीर गन्तव्य पर शीघ्र पहुँचें । तुम्हें घाव आदि से बचाकर

सुख प्रदान करते हैं । तुम चरुलोक के सूर्य के समान बनकर सहज ज्ञान से चलकर अपने निवास तक फ्हुँचो ॥३ ॥

[ ९३ - स्वस्त्ययन सूक्त |

[ ऋषि - शन्ताति । देवता - रुद्र (१ यम, मृत्यु, शर्व, २ भव ज्व, ३ विशरेदेवा, मरट्गण, अग्नीषोम्‌, वरुण,

वातपर्जन्य) । छन्द्‌ - त्रिष्टप्‌ । ]

९५७६. यमो मृत्युरघमारो नितऋथो बभ्रुः शर्वोऽस्ता नीलशिखण्ड ।

देक्जनाः सेनयोत्तस्थिवां सस्ते अस्माकं परि वृञ्जन्तु वीरान्‌ ॥१॥

नियामक परृत्युदेव, पापियों को मारने वाते, उत्पीड़क, पोषक, हिंसक, शस्त्र फेंकने वाते, नील शिखा वाले,

पापियों की हिंसा करने के लिए अपनी सेना के साच चढ़ाई करने वाले ये देवता हमारे पुत्र-पौत्रादि को सुरक्षित

रखकर सुख प्रदान करें ॥१ ॥

१५७७. मनसा होमैरहरसा घृतेन शर्वायाख्र उत राज्ञे भवाय ।

नमस्येभ्यो नम एभ्यः कृणोम्यन्यत्रास्मदघविषा नयन्तु ॥२ ॥

संकल्प द्वारा, घृतादि की आहूति द्वारा हम शर्वं (फेंके जाने वाले) अस्परके स्वामी रुद्रदेव और अन्य नमस्कार

योग्यो को नमस्कार करते है । (जिसके परिणाम स्वरूप) पापरूपौ विष हमसे दूर चले जाएँ ॥२ ॥

९५७८. त्रायध्वं नो अधविषाभ्यो वधाद्‌ विश्च देवा मरुतो विश्ववेदसः ।

अग्नीषोमा वरुणः पूतदक्षा वातापर्जन्ययोः सुमतौ स्याम ॥३ ॥

हे मरुद्गण और विश्वदेवो ! आप अधविषा वाली कृत्याओं और उनके संहारक साधनों से बचाएँ । मित्र,

वरूण, अग्नि और सोमदेव हमें बचाएं एवं वायु तथा पर्जन्य देवता हम पर अनुग्रह करें ॥३ ॥

[ ९४ - सांमनस्य सूक्त ]

[ऋषि - अथर्वाद्विरा । देवता - सरस्वती । छन्द.- अनुष्टुप, २ विराद्‌ जगती । ]

१५७९. सं वो मनांसि सं व्रता समाकूतीर्नमामसि ।

अमी ये विव्रता स्थन तान्‌ वः सं नमयामसि ॥१ ॥

हे विरुद्ध मन वाले मनुष्यो ! हम तुम्हारे मने, विचारों एवं संकल्पों को एक भाव से युक्त कर, परस्पर विरोधी

कार्यो को अनुकूलता पे परिवर्तित करते है ॥९ ॥

९५८०. अहं गृभ्णामि मनसा मनांसि मम चित्तमनु चित्तेभिरेत ।

मप वशेषु हदयानि वः कृणोमि मम यातमनुवर्त्मान एत ॥२ ॥

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