हत्वा तथोव्याँ निचकर्षं कृष्ण:॥ ५१
हते तु कंसे हरिणातिक्रुद्धो
भ्रातापि तस्यातिरुषेण चोत्थितः ।
सुनभसंजञो
रामेण नीतो यपसादनं क्षणात्॥ ५२
ततौ चन्द्र यातापितरौ सुहष्टौ
जनैः सपस्तर्यदुधिः सुसंवृतौ।
कृत्वा नृपं चोग्रसेनं यदूनां
सभां सुधर्मां ददतुमहिन्द्रीम्॥५३
सर्वज्ञभावावपि रामकृष्णौ
सम्प्राप्य सांदीपनितोऽस्त्रविद्याम्।
गुरोः कृते पञ्चजनं निहत्य
यमं च जित्वा गुरवे सुतं ददौ ॥ ५४
निहत्य रामो मगधेश्वरस्य
बलं समस्तं बहुशः समागतम्।
दिव्यास्त्रपुरैरमराविमावुभौ
शुभां पुरीं चक्रतुः सागरान्ते॥ ५५
तस्यां विधायाथ जनस्य वासं
इत्वा भृगालं हरिरव्ययात्मा।
दग्ध्वा महान्तं यवनं द्युपाया-
द्रं च दत्वा ॒नृपतेर्जगाम ॥ ५६
संशान्तसमस्तविग्रह:
सम्प्राप्य नन्दस्य पुनः स गोकुलप्।
वृन्दावने गोपजनैः सुभाषितः
सीरेण रापो यमनां चकर्ष ॥५७
रामोऽथ
बलरापर ` भ्रीकृष्ण-अवतारके चित्र
रेकेदे
प्टलवानका, जो अपने बल और पराक्रमके कारण
बहुत ही प्रसिद्ध था, कचूमर निकाल दिया। भगवान्
श्रोकृष्णने उस जन-समाजमें दैत्य मह चाणूरके साथ
देरतक युद्ध करनेके बाद उसका धं किया धा। फिर
बीरबर अलरामजीने युद्धके लिये उत्साहपूर्वक उठे हुए
पुष्करकों, जौ “मृत मुष्टिक' नामक मनक! मित्र था,
मुकेसे हौ मार डाला। इसके याद श्रीकृष्णने वहां
उपस्थित समस्त दैत्योंका संहार करके कंसकों पकड़
लिया और उसे मञ्चके नीचै भूमिपर पटककर बे स्वयं
भी उसके शरीरपर कूद पड़े। इस प्रकार कंसका वध
करके श्रीकृष्णने उसके मृत देको भूमिप घसीटा।
श्रोकृष्णद्वारा कंसके मारे जानेपर उसका बलवान् एवं
पराक्रमी भ्राता सुनाभ अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्धफे लिये
उठा; किंतु उसे भौ बलरामजीने तुरंत हौ मारकर
यमलोक भेज दिया ॥ ४८-५२॥
तदनन्तर समस्त यदुवंशि्योसे धिरे हुए उन दोनों
भाइयोंने अत्यन्त प्रसन्न हुए माता-पिताको यन्दना करके
श्रीठग्रसेनको ही यदुर्वशियोंका राजा बनाया और उन्हें
इन्द्रकौ 'सुधर्मा' नामक दिव्य सभा प्रदान की॥५३॥
यद्यपि अलराम और श्रीकृष्ण सर्वज्ञ थे, तो भी
उन्होंने सांदोपनिसे अस्त्र-विद्याको शिक्षा पायो। फिर
गुरुको दक्षिणा देनेके लिये उत हो, ' पञ्चजन ' दैत्यको
मारा और यमराजको जीतकर वे दीर्घकाले मे हुए
गुरुपुत्रको वष्ंसे ले आये। यहीं पुत्र उन्होंने गुरुगौको
दकषिगाके रूपसें अर्पित किया ॥ ५४॥
फिर बलराम जोने अपने ऊपर अनेकों यार् चढ़ाई
करेवाले नगधगज जरसंथके समस्त सैनिकोंकों दिव्यास्त्रोंको
वर्षा करके मार डाला। इसके बाद उन दोनों देवेश्वरेनि
समुद्रके भीतर एक सुन्दर पुरौ ट्वारकाका निर्माण कराया।
उसमें मधुरा्ासी कुदुम्बोजनोंकों जसाकर अविनाही भगवत्
श्कृष्णने राया शृगालका यथ किया। फिर एफ उपाय
करके महान योद्धा यवनराजकों भस्म कर, राज मुचुकु्दको
बरदान दे, वै द्वारकामें लौट गये ॥ ५५-५६ ॥
नेत्पश्चात् सारा येधा समाप्त हो जानेपर
बलरामजों एक बार फिर नन्दके गोकुल ( नन्दपीवि ) -
में गये और यहाँ वृन्दाबनमें गोपजनोंशे भलीभाँति
प्रेमालाप आदिके द्वारा सम्मानित हुए। यहाँ उन्होंने
अपने हलसे चग॒नगाजोंका आकर्षण किया था।