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उत्तराच्कि पञ्चदशोऽध्यायः १५.५

॥ चतुर्थः खण्ड: ॥

१५६४.विशोविशो वो अतिथिं वाजयन्तः पुरुप्रियम्‌ ।

अग्निं वो दुर्यं वच स्तुषे शुषस्य मन्मभिः ॥९॥ >>

अन्न व बल की कामना से युक्त हे याजको ! आप हरेक मनुष्य के गृह में अतिथि रूप में आदरणीय और

सर्वप्रिय, अग्निदेव को हविष्य प्रदान करों आपके बलवर्द्धक स्तवनों से स्थण्डिलं (यज्ञवेदी में विद्यमान) अग्नि

की हम प्रार्थना करते हैं ॥१ ॥

१५६५.यं जनासो हविष्मन्तो मित्रं न सर्पिरासुतिम्‌ ।

प्रशंसन्ति प्रशस्तिभिः ॥२॥

हविदाता मित्र के समान धृतादि से यज्ञ सम्पन्न करते हुए वैदिक स्तोतरो से हम पूजनीय अग्निदेव का

स्तवन करते हैं ॥२ ॥

१५६६.पन्यां सं जातवेदसं यो देवतात्युद्यता । हव्यान्यैरयदिवि ॥३॥

अत्यधिक स्तुत्य, सर्वजञानयुक्त अग्निदेव की हम प्रशंसा करते है । अग्निदेव यज्ञ में प्रदत्त हविष्यषान्न को

देवलोक तक पहुँचाने में सहायक हैं ॥३ ॥

१५६७.समिद्धमग्नि समिधा गिरा गृणे शुचिं पावकं पुरो अध्वो ध्रुवम्‌।

विग्रं होतारं पुरुवारमद्ुहं कविं सुम्नैरीमहे जातवेदसम्‌ ॥४॥

समिधाओं द्वारा प्रकट हुई अग्नि की हम वाणी से स्तुति करते है । शुद्ध. स्थिर ओर पावन बनाने

वाली अग्नि को यज्ञ में अग्रिम स्थान पर प्रतिष्ठित करते है । (विप्र) विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न तथा हविदाता

सभी श धारण करने योग्य, द्रोहमुक्त, ज्ञानवान्‌ और सर्वज्ञाता अग्निदेव की ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए हम स्तुति

करते हैं ॥४ ॥

१५६८.त्वां दूतमग्ने अमृतं युगेयुगे हव्यवाहं दधिरे पायुमीड्यम्‌ ।

देवासश्च मर्तासश्च जागृविं विधुं विश्पतिं नमसा नि षेदिरे ॥५ ॥

है अग्निदेव ! अमर देवता ओर मनुष्य प्रत्येक शुभ यज्ञ भे, हविवाहक रक्षक और स्तुति योग्य आपको दूत

रूप में नियुक्त करते है तथा मनुष्य, जाग्रति प्रधान, विस्तारशील और प्रजा की रक्षा मे सहायक मानकर अग्निदेव

को प्रणाम करते हुए उनकी उपासना करते हैं ॥५ ॥

१५६९.विभूषन्नग्न उभयाँ अनु व्रता दूतो देवानां रजसी समीयसे ।

यत्ते धीतिं सुमति मावृणीमहेऽध स्म नस्त्रिवरूथः शिवो भव ॥६ ॥

देव एवं मनुष्य दोनों को महिमामण्डित करते हुए, अनुशासन प्रिय, व्रतशील देवो के दूत बनकर,

दिव्यलोक एवं इसमें हवि ले जाने वाले हे अग्निदेव ! हम आपकी स्तुतियाँ करते है । तत्पश्चात्‌ तीनों स्थानों

(पृथ्वी-अन्तरिक्ष-द्युलोक) में विवरणशील आप हमें सुख प्रदान करें ॥६ ॥ *

१५७०. उपत्वा जामयो गिरो देदिशतीर्हविष्कृत: । वायोरनीके अस्थिरन्‌ ॥७ ॥

हे अग्निदेव ! हवि प्रदान करने वालों की स्तुतियाँ, बहिनों के समान आपके गुणो का बखान करती हुईं वायु

के सहयोग से आपको प्रज्वलित करके (यज्ञस्थल में) स्थापित करती हैं ॥७ ॥

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