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१६८ + संक्षिप्त गरह्म॑सैव्तैपुराण *

डक कक ४ #ऋ ड़ अ ४ ४४ 8 # # ४ ॥ हक & श्र ४ & हक 58 8 5 8 # ॥ 8 ॥ 8 5 6 ॥ # 5 ॥ कह # 8 ॥ 8 5 ॥ ४ 5 8 # ४ 8 8 # 8 8 8 ह 8 8 8 कक 5 प्र क़ ड़

मायाबीज (हीं), कामबीज (क्लीं) और बाणीबीज | रूप वृक्ष तथा दूसरे वृक्ष एकत्र होते हैं, तब

(ऐं)--इन बीजोंका पूर्व उच्चारण करके "वृन्दावनी ' | वृक्षसमुदाय अथवा वनको बुधजन “वृन्दा' कहते

इस शब्दके अन्तम (डे) विभक्ति लगायी और | हैं। ऐसी वृन्दा नामसे प्रसिद्ध अपनी प्रिया

अन्तमें वह्विजाया (स्वाहा)-का प्रयोग करके ' श्रीं | | तुलसीकी मैं उपासना करता हूँ। जो देवौ

डी क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा ' इस दशाक्षर-मन्त्रका | प्राचीनकालमें वृन्दावने प्रकट हुई थी, अतएव

उच्चारण किया। नारद! यह मन्त्रराज कल्पतरु जिसे ' वृन्दावनी" कहते हैं, उस सौभाग्यवती

है। जो इस मन्त्रका उच्चारण करके विधिपूर्वक | देवीको मैं उपासना करता हूँ। जो असंख्य वृक्षोंमें

तुलसौकी पूजा करता है, उसे निश्चय ही सम्पूर्ण

सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। घृतका दीपक, धूप,

सिन्दूर, चन्दन, नैवेद्य और पुष्प आदि उपचारोंसे

तथा स्तोत्रद्वारा भगवानूसे सुपूजित होनेपर तुलसीको

व प्रसन्नता हुई । अतः वह वुक्षसे तुरंत बाहर

निकल आयी ओर परम प्रसन्न होकर भगवान्‌

श्रीहरिके चरणकमलोंकी शरणमे चली गयी । तब

भगवान्‌ने उसे वर दिया-" देवी ! तुम सर्वपूज्या

हो जाओ। मैं स्वयं तुम्हें अपने मस्तक तथा

वक्षःस्थलपर धारण करूँगा। इतना हो नहीं,

| निरन्तर पूजा प्राप्त करती है, अतः जिसका नाम

| ' विश्वपूजिता' पड़ा है, उस जगत्पूज्या देवीकौ

मैं उपासना करता हूं । देवि ! जिसने सदा अनन्त

विरश्वौको पवित्र किया है, उस 'विश्वपावनी'

देवीका मै विरहसे आतुर होकर स्मरण करता

हूँ। जिसके बिना अन्य पुष्प-समूहोंके अर्पण

करनेपर भी देवता प्रसन्न नहीं होते, ऐसी

"पुष्यसार '-पुष्पोंमें सारभूता शुद्धस्वरूपिणी तुलसी

देवीका मैं शोकसे व्याकुल होकर दर्शन करना

चाहता हूं । संसारमें जिसकी प्राततिमात्रसे भक्त

सम्पूर्णं देवता तुम्हें अपने मस्तकपर धारण | परम आनन्दित हो जाता है, इसलिये "नन्दिनी '

करेगे ।' यों कहकर उसे साथ ले भगवान्‌ श्रीहरि | नामसे जिसकी प्रसिद्धि है, वह भगवती तुलसी

अपने स्थानपर लौट गये। अब मुझपर प्रसन्न हो जाय । जिस देवीकी अखिल

भगवान्‌ नारायण कहते हैं--मुने ! तुलसीके | विश्वमे कहीं तुलना नहीं है, अतएव जो ' तुलसी '

अन्तर्धनि हो जानेपर भगवान्‌ श्रीहरि विरहसे | कहलातौ है, उस अपनी प्रियाकी मैं शरण ग्रहण

आतुर होकर वृन्दावन चले गये थे ओर वहाँ | करता हं । वह साध्वी तुलसी वृन्दारूपसे भगवान्‌

जाकर उन्होंने तुलसीकी पूजा करके इस प्रकार | श्रीकृष्णकी जीवनस्वरूपा है ओर उनकी सदा

स्तुति की थी।

श्रीभगवान्‌ बोले- जब वृन्दा (तुलसी) -

प्रियतमा होनेसे ' कृष्णजीवनी ' नामसे विख्यात है ।

बह देवी तुलसी मेरे जीवनकी रक्षा करे*।

*नारायण उवाच-

अन्तर्हितायां तस्यां च गत्वा च तुलसीवनम्‌ । हरिः सम्पूज्य तुष्टाव तुलसीं विरहातुरः ॥

श्रीभगवानुवाच-

चुन्दारूपाश्च वृश्चाश्च यदैकत्र भवन्ति च । विदुर्बुधास्तेन वृन्दं मह्प्रियां तां भजाम्यहम्‌॥

पुरा बभूव या देवी त्वादौ वृन्दावने वने

असंख्येषु च विश्चेषु पूजिता या निरन्तरम्‌

असंख्यानि च विश्वानि पवित्राणि यया सदा

देवा न तुष्टाः पुष्पाणां समूहेन यया चिना

विश्वे यत्प्रातिमात्रेण भक्तानन्दौ भवेद्‌ धुवम्‌

तेन वृन्दावनी ख्याता सौभाग्यां तां भजाम्यहम्‌ ॥

तेन विश्चपूजिताख्यां जगत्पूज्यं भजाम्यहम्‌ ॥

तां विश्वपावनीं देवीं विरहेण स्मराम्यहम्‌॥

तां पुष्पसारं शुद्धो च द्रष्टुमिच्छामि शोकतः ॥

नन्दिनी तेन विख्याता सा प्रोता भवताद्धि में ॥

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