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अध्याय ४० ]

आश्रमो वै वसिष्ठस्य स्थाणुतीर्थे बभूव ह।

तस्य पश्चिमदिग्भागे विश्वामित्रस्य धीमतः। ३

यत्रेप्ठा भगवान्‌ स्थाणुः पूजयित्वा सरस्वतीम्‌ ।

स्थापयामास देवेशो लिङ्गाकारं सरस्वतीम्‌॥ ४

वसिष्ठस्तत्र॒ तपसा घोररूपेण संस्थितः ।

तस्येह तपसा हीनो विश्वामित्रो बभूव ह॥ ५

सरस्वतीं समाहूय इदं वचनमद्रवीत्‌।

वसिष्ठे मुनिशार्दूलं स्वेन वेगेन आनय॥ ६

इहाहं तं द्विजश्रेष्ठं हनिष्यामि न संशयः।

एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यथिता सा महानदी॥ ७

तथा तां व्यधितां दृष्टा वेपमानां महानदीम्‌।

विश्चामित्रोऽब्रवीत्‌ क्रुद्धो वसिष्ठं शीघ्रमानय ॥ ८

ततो गत्वा सरिच्छष्ठा वसिष्ठं मुनिसत्तमम्‌।

कथयामास रुदतो विश्वामित्रस्य तद्‌ वचः॥ ९

तपःक्रियाविशीर्णा च भृशं शोकसमन्विताम्‌।

उवाच स सरिच्छेष्ठां विश्वामित्राय मां वह ॥ १०

तस्य तद्‌ वचनं श्रुत्वा कृपाशीलस्य सा सरित्‌।

चालयामास तं स्थानात्‌ प्रवहिणाम्भसस्तदा ॥ ११

स च कूलापहारेण मित्रावरुणयोः सुतः ।

उद्यमानश्च तुष्टाव तदा देवीं सरस्वतीम्‌ ॥ १२

पितामहस्य सरसः प्रवृत्ताऽसि सरस्वति।

व्याप्तं त्वया जगत्‌ सर्वं तवैवाम्भोधिरुत्तमैः ॥ १३

त्वमेवाकाशगा देवी मेघेषु सृजसे पयः।

सर्वास्त्वापस्त्वमेवेति त्वत्तो वयमधीमहे ॥ १४

पुषटधृतिस्तथा कीरिः सिद्धिः कान्तिः क्षमा तथा ।

स्वधा स्वाहा तथा वाणी तवायत्तमिदं जगत्‌॥ १५

त्वमेव सर्वभूतेषु वाणीरूपेण संस्थिता ।

एवं सरस्वती तेन स्तुता भगवती सदा ॥ ९६

सुखेनोवाह तं विप्रं विश्वामित्राश्रमं प्रति।

न्यवेदवत्तदा खिन्ना विश्वामित्राय तं मुनिप्‌॥ १७

* चसिश्ठापवाह नामक तीर्धका उत्पत्ति-प्रसङ्ग*

१६७

वसिष्ठका आश्रम स्थाणुतीर्थे था ओर उसके पश्चिम

दिशामे बुद्धिमान्‌ विश्वामित्र महर्धिका आश्रम था; जहाँ

देवाधिदेव भगवान्‌ शिवने यज्ञ करनेके बाद सरस्वतीकौ

पूजा कर मूर्विके रूपमे सरस्वतीकौ स्थापना कौ थी।

चसिष्टजौ वहीं घोर तपस्यामें संलग्र थे। उनकी तपस्यासे

विश्वामित्र ( प्रभावतः) हीन-से होने लगे ॥ २--५॥

(एक बार) विश्वामित्रे सरस्वतीको बुलाकर यह

वचन कषहा-- सरस्वति! तुम मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको अपने

वेगसे यहा लाओ । मै उन द्विजश्रेष्ठ यसिष्ठको यहाँ मार्गा --

इसमें संदेहकी बात नहीं है । इस (अवाञ्छनीय वात )-

को सुनकर यह महानदी दुःखिते हो गयी । (पर) विश्वामित्रे

उस प्रकार दुःखित एवं काँपती हुई उस महानदीको

देखकर क्रोधरमे भरकर कहा कि वसिष्टको शीघ्र लाओ।

उसके याद उस श्रेष्ठ नदीने मुनि ग्रष्ठके पास जाकर उनसे

रोते हुए विश्वामित्रकौ उस बातको कहा ॥ ६--९॥

उन यसिष्ठजीने तपश्चयसि दुर्बल एवं अतिशय

शोक-समन्वित उस श्रेष्ठ सरिता ( सरस्वती )-से कहा --

(तुम) विश्वामित्रके पास मुझे बहा ले चलो। उन

दयालुके उस वचनको सुनकर उस सरस्वती सरिताने

जलके (तेज) प्रवाहद्वारा उन्हें उस स्थानसे बहाना

प्रारम्भ किया। किनारेसे ले जाये जानेके कारण बहते हुए

मित्रावरुणके पुत्र वसिष्ठ-ऋषि प्रसन होकर देवी

सरस्वतीकी स्तुति करने लगे - सरस्वति! आप ब्रह्माके

सरोवरसे निकली है । आपने अपने उत्तम जलसे समस्त

जगत्को व्याप्त कर दिया है ॥ १० -१३॥

"आप ही आकाशगामिनी देवौ हैं और मेघोंमें

जलको उत्पन्न करती हैं। आप ही सभी जलोंके रूपमे

वर्तमान हैं। आपकी ही शक्तिसे हम लोग अध्ययन

करते हैं। आप ही पुष्टि, धृति, कौर्पि, सिद्धि, कान्ति,

क्षमा, स्वधा, स्वाहा तथा सरस्वती हैं। यह पूरा विश्व

आपके ही अधीन है। आप ही समस्त प्राणियोंमें

वाणीरूपसे स्थित हैं।' वसिष्टजीने भगवती सरस्वतीकी

इस प्रकार स्तुति की और सरस्वती नदीने उन

विप्रदेवको विश्वामित्रके आश्रममें सुखपूर्वक पहुँच

दिया और खिन्न होकर उन मुनिको विश्वामित्रके लिये

निवेदित कर दिया॥ १४--१७॥

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