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जलकी आज्ञासे जाया करते हैं; किन्तु जब वह नहाकर
धोती निचोड़ने लगता है, तब वे निराश लौट जाते हैं;
अतः पितृतर्पण किये बिना घोती नहीं निचोड़नी चाहिये।
मनुष्यके शरीरमें जो साढ़े तीन करोड़ रोएँ हैं, वे सम्पूर्ण
तीथोंकि प्रतीक हैं। उनका स्पर्श करके जो जल धोतीपर
गिरता है, वह मानो सम्पूर्ण तीथॉँका ही जल गिरता है;
इसलिये तर्पणके पहले धोये हुए वस्नकों निचोड़ना नहीं
चाहिये। देवता स्नान करनेवाले व्यक्तिके मस्तकसे
गिरनेवाले जलको पीते है, पितर मुँछ-दाढ़ीके जलसे तृप्त
होते हैं, गन्धर्व नेत्रोंका जल और सम्पूर्ण प्राणी
अधोभागका जल ग्रहण करते हैं। इस प्रकार देवता,
पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणी स्रानमाजसे संतुष्ट होते
हैं। सख्रानसे शरीरमें पाप नहीं रह जाता। जो मनुष्य
प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुरुषोमे श्रेष्ठ दै । वह सब
पापोँसे मुक्त होकर स्वर्गलोके प्रतिष्ठित होता है । देवता
और महर्षि तर्पणतक सानका ही अङ्गं मानते है।
तर्पणके बाद विद्वान् पुरुषको देवताओं पूजन करना
चाहिये ।
जो गणेशकी पूजा करता है, उसके पास कोई विघ्न
नहीं आता। तेग धर्म और मोक्षके लिये लक्ष्मीपति
भगवान् श्रीविष्णुकी, आवङ्यकताओंकी पूर्तिके ल्थयि
शङ्कस्की, आरोग्यके लिये सूर्यकी तथा सम्पूर्ण
कामनाओंकी सिद्धिके लिये भवानीकी पूजा करते हैं।
देवताओंकी पूजा करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव करना
चाहिये। पहले अग्निकार्य करके फिर ब्राह्मणोंको तृ
करनेवाला अतिथियज्ञ करे । देवताओं और सम्पूर्ण
प्राणियोंका भाग देकर मनुष्य स्वर्गत्ओोकको जाता है।
इसलिये प्रतिदिन पूरा प्रयत्र करके नित्यकर्मौका अनुष्ठान
करना चाहिये। जो खान नहीं करता, वह मल भोजन
करता है । जो जप नहीं करता, वह पीव और रक्तपान
करता है । जो प्रतिदिन तर्पण नहीं करता, वह पितृघाती
होता है । देवताओंकी पूजा न करनेपर ब्रह्महत्याके समान
पाप लगता है। सनध्योपासन न करके पापी मनुष्य
सूर्यकी हत्या करता है ।
नारदजीने पृचछा -- पिताजी ! ब्राह्मणादि वर्णोकि
* अर्चयस्व इषीकेदो यदीच्छसि परं पदम् «
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सदाचार और उनके कर्तव्यो क्रम बतलाइये, साथ ही
समस्त प्रवृत्तिप्रधान कर्मोंक्ा वर्णन कीजिये ।
ब्रह्माजीने कहा-- वत्स ! मनुष्य आचारसे
आयु, धन तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है । आचार
अशुभ लक्षणोंका निवारण करता है । आचारहीन पुरुष
संसारे निन्दित, सदा दुःखका भागी, रोगी ओर अल्पायु
होता है । अनाचारी मनुष्यको निश्चय ही नरकमें निवास
करना पड़ता है तथा आचारसे श्रेष्ठ लोककी प्राप्ति होती
है; इसलिये तुम आचारका यथार्थरूपमें वर्णन सुनो ।
प्रतिदिन अपने घरको गोबरसे लीपना चाहिये।
उसके बाद काठका पीढ़ा, बर्तन और पत्थर धोने
चाहिये । काँसेका बर्तन राखसे और ताँबा खटाईसे शुद्ध
होता है। सोने और चाँदी आदिके बर्तन जलमात्रसे
धोनेपर शुद्ध हो जाते हैं। लोहेका पात्र आगके द्वारा
तपाने और धोनेसे झुद्ध होता है। अपवित्र भूमि खोदने,
जलाने, स्मीपने तथा धोनेसे एवै वर्षासे शुद्ध होती है।
घातुनिर्मित पात्र, मणिपात्र तथा सब प्रकारके पत्थरसे
बने हुए पात्रकी भस्म और मृत्तिकासे शुद्धि बतायी गयी
है। शय्या, स्त्री, बालक, वस्त्र, यज्ञोपवीत और
कमण्डलु--ये अपने हों तो सदा शुद्ध हैं और दूसरेके
हों तो कभी शुद्ध नहीं माने जाते । एक यस धारण करके
भोजन और ख्लान न करे। दूसरेका उतारा हुआ वस्त्र
कभी न धारण करे। केर और दाँतोंकी सफाई सबेरे ही
करनी चाहिये। गुरुजनॉंको नित्यप्रति नमस्कार करना
नित्यका कर्तव्य होना चाहिये। दोनों हाथ, दोनों पैर और
मुख--इन पाव अज्लॉको धोकर विद्वन् पुरुष भोजन
आरम्भ करे । जो इन पाँचॉंको धोकर भोजन करता है,
वह सौ वर्ष जीता है । देवता, गुरु, स्नातक, आचार्य ओर
यज्ञमे दीक्षित ब्राह्यणकी छायापर जान-बूझकर चैर नहीं
रखना चाहिये । गौओंके समुदाय, देवता, ब्राह्मण, घी,
मधु, चौराहे तथा प्रसिद्ध वनस्पतिर्योको अपने दाहिने
करके चलना चाहिये । गौ-ब्राह्मण, अग्नि -ब्राह्मण, दो
ब्राह्मण तथा पति-पत्नीके बीचसे होकर नहीं निकलना
चाहिये। जो ऐसा करता है, वह स्वर्गमें रहता हो तो भी
नीचे गिर जाता है। जूठे हाथसे अग्नि, ब्राह्मण, देवता,