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* पुरणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
{ संक्षिप्त गरुडपुराणाडु
444 4.4.
राजनीति-निरूपण
सूतजीने कहा-राजाको चाहिये कि वह सदैव
सबकी भलीभाँति परीक्षा करता रहे। सत्यपरायण तथा
धर्मपरायण राजा ही नित्य राज्यका पालन करनेमें समर्थ
होता है, उसे चाहिये कि वह शत्रुसेक्ओंको जीतकर
धर्मपूर्वक पृथिवोका पालन करे।
राजाकों जंगलमें मालीके समान पुष्पवृक्षसे पुष्य ग्रहण
करना चाहिये, किंतु कोयला बनानेवालेके समान वृक्षका
मूलोच्छेद नहीं करना चाहिये। अर्थात् राज्यरूपी चने
जाको अपनी प्रजासे कर ग्रहण करते समय मालीके सदृश
आचरण करता चाहिये, वृक्ष काटकर कोयला बनानेवाले
अंगारकका आचरण उसके लिये सर्वथा त्याज्य है।
जिस प्रकार दूध दुहनेवाले दुग्धका पान करते हैं, किंतु
विकृत हो जानेपर उसका उपभोग नहीं करते, उसी प्रकार
राजाओंको चाहिये कि वे परराष्ट्रक'ः उपभोग तो करें, किंतु
उसको दूषित न करें।' जिस प्रकार दुग्ध-प्राप्तिके इच्छुक
मनुष्य गौके स्तनसे दुग्ध तो निकाल लेते हैं, परंतु उसके
स्तनकौ काटते नहों; इसी प्रकार राजक द्वारा प्रयुक्त इस
जौतिसे अर्थात् कर-रूपमें सम्पूर्ण धन ग्रहण करनेसे पीड़ित
राष्ट्र अध्युटयको प्राप्त नहीं करता है। अतएव राजाकों सब
प्रकारसे पृथिवौका पालन करना चाहिये; क्योंकि ऐसे
राजाके पास ही भूमि, कीर्ति, आयु, प्रतिष्ठा और पराक्रम
विद्यमान रहते हैं।
नित्य भगवान् विष्णुकी पूजा करके जो धार्मिक राजा
गौ-ब्राह्मणके हितमें रत रहता है, वही जितेन्द्रिय राजा
प्रजाके पालने समर्थ हो सकता है।
ऐश्वर्य अस्थायी होता है। अतः प्राप्त हुए अस्थिर
ऐश्वर्ममें आसक्त तन होकर राजाकौ धर्माचरणमें अपनी
बुद्धिको लगाना चाहिये। धन-सम्पत्ति आदि तो क्षणभरमें
ही नष्ट हो जाता है, क्योकि धन आदि अपने अधीन नहीं
हैं।' मनको रमणोय लगनेवाली स्त्रियाँ सत्य हो सकती हैं,
विभूतियाँ ( धन-सम्पत्ति) भी सत्य हो सकती हैं, किंतु यह
जीवन तो स्त्रीके कटाक्षपातकी भाँति चंचल (असत्य) है।
शरीरमें स्थित वृद्धावस्था सिंहनोके समान भयभीत कर्ती
रहती है, रोग शत्रुकौ भाँति ज्रीरमें उत्पन्न होते रहते हैं।
आयु फूटे हुए घड़ेसे निकलते हुए जलके सदृश क्षीण होतो
जाती है, फिर भो इस संसारमें कोई भी मनुष्य आत्महित-
चिन्तनमें प्रवृत्त नहीं होता।*
है मनुष्यों! इस क्षणभंगुर जोवनमें आप सब निश्चिन्त
क्यों हैं? दूसरेका हित करना ही उचित है, जो बादमें
कल्याणकारी है। इस परोपकार-धर्मसे विपरीत कामिनियोंके
मन्द-मन्द कराक्षपातसे कामपीडित आप सबके द्वारा जो
आनन्द प्राप्त किया जाता है, क्या उसीमें आप सभीका
हित संनिहित है? ऐसे आचरणमें तो कभी भौ हित
सम्भव नहीं है। अत: इस प्रकारका पाप न करें। आप
सभीको सदैव ब्राह्मण, विष्णु ओर उस परात्पर ब्रह्मका
विधिवत् निरन्तर भजन करना चाहिये; क्योंकि जले
डूबे हुए घटके समान आयु मृत्युके बहाने एक दिनमें ही
समाप्त हो सकती है, अधवा यह धीरे-धीरे नष्ट होती
जाती है।
जो मनुष्य परायी स्त्रियों मातृभाव रखता है, जो
दूसरेके द्रव्योंकों मिट्टी-पत्थरके ढेलेके समान नगण्य
समझता है और सभी प्राणियोते अपने ही स्वरूपका दर्शन
(आत्मदर्शन) करता है, कहौ विद्धान् है--
मातृवत्परदारेषु. परद्रव्येषू. लोप्टबत्।
आत्पवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डित:॥
(१६१।१२)
हे ब्राह्मणो! सत्य तो यही है कि राजागण अपनी
आत्माके लिये ही राज्यप्राप्तिकी कामना करते हैं और
इसीलिये सभी कार्योंमें अपनी वाणीका उल्लंघन भी सहन
नहीं करते है तथा धनका संचय भी इसौके लिये करते
हैं, किंतु राजाकों भी अपनी रक्षा करके शेष चये हुए
धनका उपयोग द्विजातियोंके भरण-पोषणमें करना चाहिये।
ब्राह्मणोंका मूल मन्त्र भकार है। इस 3#कारकी
उपासनासे राको अभिवृद्धि होतो है ओर योगसे यजा
युद्धिको प्राप्त करते हैं और किसी भी प्रकारकी व्याधिं
उसे बाँध नहीं सक्तं ।
१-दोग्धार: क्षौरभुज्ञाना विकृतं तन्न भुझते। परराषटं महौष्तसैरभक्तव्यं॑न च दूषयेत् ॥ (१११।४)
२-एेश्र्यमधुवं प्राप्य राजा धम मतिं चोत् । क्षणेत विभवो नश्येज्वात्मायत्त ध्रादिकमूब (११६।८)
३- सत्य मनोरमाः कस्याः सत्वं रप्या विभृतय:। किंतु यै खनितापाड़ भज्िलोल हि जोजितम् च
श्वाप्री् शिश्विति जा परितजंयत्तौी रोगाश्च ज्य
आयुः परित्रवति
ष्व प्रयन्ति गारे ।
भिन्नघटादिवाम्भो लोको त बात्महितराथएरीिह कश्चि ४(१११।९-१०)