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१७६ | [मत्स्य पुराण

पुण्यां योनि पुण्यक्रतों विशन्ति पापां योनि पापकृतो ब्रजन्ति ।

कीटाः पत ङ्काश्च भवन्ति पापन्न मे विवक्षास्ति महानुभाव ।१€

चतुष्पदा द्विपदाः पक्षिणश्च तथा भूता गभेभूता भवन्ति ।

आख्यातमेतन्तिखिलं हि सर्वे भूयस्तु कि पृच्छसि राजसिंह ।२०

राजा ययाति ने कहा--पुष्प रस से अनुयुक्त रेत को ऋतुकालमें

वायु समुत्कषित किया करता है । उतना ही अधिकार करने वाला वह

वहाँ पर क्रम से गर्भ को संवधित किया करता है ।१४। इसके उपरांत

जब वह जायमान होता है तो गात्र को ग्रहण करने वाला हो जाता

है । इसके पश्चात्‌ वह मनुष्य सज्ञा को अधिष्ठित हुआ करता है । वह

श्रोत्रों से यहाँ पर शब्द का ज्ञान करता है और वह रूप को चक्षते

देखता है । १५। घ्राण से गन्धे को पहिचानता है तथा जिह्वा से रस

और त्वचा से स्पर्श और मन से भेदभाव को जानता हैं। प्राणधारी

महात्मा के शरीर में इस अष्टक में उपचित समञ्नलौ' ।१६। अष्टक ने

कहा-जो संस्थित पुरुष जला दिया जाता है--गाड़ दिया जाताहै अथवा

निकृष्ट किया जाता है अभावभूत वह विनाश को प्राप्त होकर फिर

किसके द्वारा आगे आत्माको चैतन्य स्वरूप देकर प्रदर्शित किया करता

है ।१८। राजा ययाति ने कहा--वह प्राणों का त्याग करके एक लुप्त

की भाति निष्ठित होने से अपने जीवन में विहित सुकृत और दुसकृत

आगे रखकर हों पुण्य-प।प के अनुसार अन्य योनि को भजता है. और

इस देह का त्याग कर दिया करता है । हे राजर्सिह ! अधम शरीर के

त्याग के बाद ऐसा ही हुआ करत) है जिसमें पुण्य-पाप की प्रधानता

होती है ।१८। जो पुण्य कर्म्मो के करने वाले लोग होतेहैं वेः परण्य योनि

में ही प्रवेश किया करते हैं और जो पापकर्म करने वाले हैं वे पापयोनि

में जाया करते हैं हे महानुभाव ! कीट और पतङं पाप से होते हैं

यह मोरी विवक्षा नहीं है।१६। चतुष्पद-द्विपद और पक्षीवर्ग उस प्रकार

से हुए गर्भभूतः होते टै यह हमने सभी कुछ कह दियथा हैः । है राजसिंह

पुनः अब क्या पूछते हैं । २०।

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