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ज्ाह्मपर्त ]

* उत्तम एवं अग्रप भोजकोंके लक्षण +

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सूर्यका पूर्वाहमे रक्तवर्ण, ऋग्वेद-स्वरूप तथा यजसरूप

होता है। मध्याहमें शुकृवर्ण, यजुर्वेद -स्वरूप एवं सात्विक रूप

होता है। सायके कृष्णवर्ण, सामवेदस्वरूप तथा

तामसरूप होता है। इन तीनोंसे भिन्न ज्योतिः स्वरूपः सूक्ष्म और

निरञ्जनस्वरूप चतुर्थ स्वरूप है। पद्मासनमें बैठकर सुषुम्णा

जाड़ी-मार्गमें खितको स्थिर कर प्रणवसे पूरक, कुम्भक और

रैचक-रूप प्राणायाम कर चैरकरे अगूठेके अप्रभागसे लेकर

मस्तकपर्यन्त न्यास करे । नाभिमें अप्रिका, हृदयमें चद्धपाका

और मस्तके अग्निशिखाका न्यास करना चाहिये। इन सबसे

ऊपर सूर्यमण्डलका न्यास करे--यह चतुर्थ स्थान है, इस

स्थानको मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको अवश्य जानना

चाहिये। ऋषिगण सूर्यभगवानके इसी तुरीय स्थानम मनको

छीनकर मुक्त हो जाते हैं। मग भी इसी स्थानक ध्यान कर

मोक्षके भागी होते रै । इस जञानकों सुनाकर भगवान्‌ वेदव्यास

यदरिकाश्रमकी ओर चले गये ।

(अध्याय १४५७)

उत्तम एवं अथम भोजकोके लक्षण

राजा इातानीकने पूछा--मुने ! भगवान्‌ सूर्यकी पूजा

करनेवाले भोजक दिव्य, उनसे उत्पन्न एवं उन्हें अत्यत्त प्रिय

है! इसलिये वे पूज्य हुए कितु वे अभोज्य कैसे कहलाते हैं,

इस विषयमे आप बतलायें ?

सुमन्तु मुनिने कहा--राजन्‌ ! मैं इस विषयमे भगवान्‌

कासुदेव तथा कृतवर्माकि द्वार हुए संबादकों अत्यन्त संक्षेपमें

अतत्र रहा हूँ। किसी समय नारद और पर्वत--ये दोनों मुनि

साम्बपुर गये। वहाँ उन्होंने भोजकॉके यहाँ भोजन किया,

अनन्तर वे दोनों विमानपर आरूढ़ हो द्वारकापुरीमें आ गये।

उनके विषयमें कृतवर्माकों शंका हुई कि सूर्यके पूजक होनेसे

भोजकोंका अन्न अग्राह्म है, फिर नारद तथा पर्वत--इन

दोनोंने उनका अन्न कैसे ग्रहण किया 2? इसपर चासुदेयने

कृतवर्मासे कहा--जों भोजक अव्यङ्ग धारण नहीं करते और

विना ऊरव्यङ्गके तथा विना स््रान किये भगवान्‌ सूर्यकी पूजा

करते हैं और शुद्रका अन्न प्रहण करते हैं तथा देवार्चाक्ा

परित्याग कर कृषि-कार्य करते हैं, जिनके जातकर्मादि संस्कार

नहीं हुए हैं, शख धारण नहीं करते, मुण्डित नहीं रहते--वे

भोजकोंमें अधम हैं। ऐसे भोजकद्वारा किये गये देवार्चन,

हवन, खान, तर्पण, दान तथा ब्राह्मण-भोजन आदि सत्कर्म भी

निष्फल होते हैं। इसीसे अशुचि होनेके कारण वे अभोज्य कहे

गये हैं। भगवान्‌ सूर्यके नैवेद्य, निर्माल्य, कुकुम आदि शुद्रॉकि

हाथ बेचनेवाले, भगवान्‌ सूर्यके धनको अपहत करनेवाले

भोजक उन्हें प्रिय नहीं हैं तथा वे भोजकोंमें अधम हैं। जो

भोजक भगवानक्ये भोग लगाये बिना भोजन कर लेते हैं,

उनका वह भोजन उन्हें नरक प्राप्त करानेवाला बन जाता है।

अतः भगवान्‌ सूर्यको अर्पण करके ही नैवेद्य भक्षण करना

चाहिये, इससे शरीर शुद्धि होती है।

वासुदेवने पुनः बतलाया-- कृतवर्मन्‌ ! भोजकोंको

प्रियताके विषयमे भगवान्‌ सूर्यने अशुणको जो बतलाया, उसे

आप सुनै--

जो भोजक पर-स्त्री तथा पर-धनका हरण करते है,

देवताओं तथा वेदोकि निन्दक रै, वे मुझे अप्रिय हैं । उनके द्वारा

की गयी पूजा तथा प्रदान किये गये अर्ध्यको यै ग्रहण नहीं

करता । जो भगयती महाश्वेताका यजन नहीं करते एवै सूर्य-

मुद्राओंक नहीं जानते तथा मेरे पार्षदोंका अम नहों जानते, वे

मेरौ पूजा करनेके अधिकारी नहों हैं और न मेरे प्रिय हैं।

इसके विपरीत देव, द्विज, मनुष्य, पितरोंकी पूजा

करनेवाले, मुण्डित सिरवाले, अव्यङ्ग धारण करनेवाले, शख -

ध्वनि करनेवाले, क्रोधरहित, तीन कालमें खान एवं पूजन

करनेवाले भोजक युद्वे अत्यन्त प्रिय हैं एवं मेरे पूजनके

अधिकारी हैं। जो रविवारके दिन षष्ठौ तिथि पड़नेपर नक्तन्नत

तथा सम्नमी एवं संक्रान्तिमें उपवास करते हैं एवं मुझमें विशेष

भक्ति रखते हुए मेरे धक्त ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं तथा देव,

ऋषि, पितर, अतिथि और भूत-यज्ञ--इन पाँचोंका अनुष्ठान

करते हैं, एकभुक्त होकर सूर्यपूजा करते हैं तथा सोवत्सरिक,

पार्वण, एकोद्दिष्ट आदि श्राद्ध सम्पन्न करते हैं और उन

तिथियों दान देते है, वे भोजकः मुझे अत्यन्त प्रिय हैं तथा जो

भोजक माघ मासकी सप्रमीक्रो करवीर-पुष्प, रक्तचन्दन,

मोदकका नैवेह्य, गुग्गुल धूप, दूध, शङ्खादि वाद्य-ध्वनि,

पताका तथा छत्रादिसे मेरी पूजा करते हैं, घृतकी आहति देकर

हवन करते हैं तथा पुराणवाचक ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं, ये

मुझे प्रिय हैं। इतना कहकर भगवान्‌ सूर्यदेव सुमेरु गिरिकी

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