अध्याय ४२)
वैष्णवं बलमालोक्य राजा नूनं भवं दधौ।
पुनस्तस्य वथोपायं चिन्तयन् स सुदुर्मतिः ॥ २७
समादिशत् समाहूय दंदशूकान् सुदुर्विषान्।
अश्स्रवधयोग्योऽयमस्मयो हरितोषकृत्॥ २८
तस्माद् भवद्धिरचिराद् हन्यतां गरलायुधा:।
हिरण्यकशिपोः श्रुत्वा वचनं ते भुजंगमाः ।
तस्याल्लां जगृहरमर्ध्नां प्रहपटिशवर्तिनः॥ २९
अथ ज्वलदशनकरालदेष्टिण
स्फुटस्फुरद्शनसहस्रभीषणाः ।
हरिमहिस्वकर्षका
हरिप्रियं दरुततरमापतन्रुषा ॥ ३०
गरायुधास्त्व्नमपि भेत्तुमल्पिकां
अलं न ते हरिवपुषं तु केवलं
विदश्य तं निजदशतैर्विना कृताः ॥ ३१
स्रवतेक्षतजविषण्णपूर्तयो
द्विधाकृताद्धुतदशनां भुजंगमाः ।
समेत्य ते दिक्तिजिपतिं व्यजिज्ञपत्
विनिः श्वसत्प्रचलफणा भुजंगमाः ॥ ३२
प्रभो महीध्रानपि भस्मशेषां-
स्तस्मिन्नरशक्तास्तु तदैव वध्याः ।
तवात्मजस्य
वधे नियुक्त्वा दशनैर्विना कृताः ॥ ३३
इत्थं दिजिद्वाः कठिन निवेद्य
ययु्विसृष्टाः प्रभुणाकृतार्थाः ।
विचिन्तयन्तः पृथुविस्मयेन
प्रद्वादसामर्ध्यनिदानमेव
मार्कण्डेय उद्दाच
अधासुरेशः
अकर्षका
तततः
॥ ३४
सचियैर्वंचार्य
निश्चित्य सूनुं तमदण्डसाध्यम्।
आहूय साप्ना प्रणतं जगाद
वाक्यं सदा नि्मलपुण्यचित्तम्।
दुष्टोऽपि निजाङ्कजातो
न वध्य हत्यद्य कृपा मपाभृत्॥ ३५
प्रह्राद
* किष हो जिनका रस्त है, उल्ें " गरलायुध" (सर) करा है ।
प्रह्लादपर हिरण्यकशिपुका कोप और
प्रह्वादका यध करनेके लिये प्रक्ल १४५५
चैष्ण्योका बल देखकर राजा हिरण्यकंशिपुको अवश्य
ही महात् भय हुआ; किंतु उस दुर्बुद्धिते पुनः प्रद्मादके
वधका उपाय सोचते हुए, अत्यन्त भयंकर विषयाले
सर्पोकों बुलाकर उन्हें आदेश दिया--' गरलायुधो* ! विष्णुको
संतुष्ट करनेवाला यह निश्शङ्क बालक किसी शस्त्रसे
नहीं मारा जा सकता; अतः तुम सभी मिलकर इसे अति
शीघ्र मार डालो।' हिरण्यकशिपुकी यह चात सुनकर
उसकौ आज्ञा माननेबाले सभो सर्पोंगे उसके आदेशको
हर्षपूर्वक शिरोधार्य किया॥ २७--२९॥
तदनन्तर जिनके दाँत विषते जल रहे हैं तथा जिनको
दाढ़ें बिकराल हैं, जौ स्फुट दिखायी देनेवाले हजारों
चमकीले दाँतोंके कारण भयानक जान पड़ते हैं, ऐसे
सर्पगण क्रोधसे फुफकारते हुए बड़े वेगसे उस हरिभक्तके
ऊपर टूट षडे! भगवान्के स्मरणके बलसे जिनका आकार
दुर्भेद्द हो गया था, उन प्रह्ादजीके शरीरका थोड़ा-सा
चमढ़ा भी काटनेमें ते विषधर सर्प समर्थ न हो सके।
इतना हो नहो, जिनका शरीर भगवन्मय हो गया था, ठन
प्रहादजोको केवल डँसनेमात्रसे वे सर्प अपने सारे दाँत
खो बैठे। तदनन्तर रक्तकी धारा बहनेसे जिनका आकार
बिषादप्रस्त हो रहा है, जिनके अद्धभृत दाँतोंके दो-दो टुकड़े
हो गये हैं तथा बार-बार उच्छवास लेनेके कारण जिनके
फन च्ल हो रहे हैं, उन भुजगमेनि परस्पर मिलकर
दैत्यराज हिरण्यकशिपुकों सूचित किया--॥ ३०-३२॥
"प्रभो ! हम पर्वौको भी भस्म करयेमे समर्थ हैं, यदि
उनमें हमारी शक्ति न चले तो आप तत्कले हमारा वध
कर सकते हैं। परंतु आपके महानुभाव पृत्रका वध कलेमें
लगाये जाकर तो हम अपने दमि भी हाथ धो बैठे।' इस
प्रकार गर्टी कठिनाईसे नियेदन करके स्यामी हिरण्यकशिपुफे
आदेश देनेपर भी अपने कार्यमें असफल हुए ये सर्प
अत्यन्त आश्चर्यके साथ प्रद्मदके अद्भुत सामर्थ्यका क्या
कारण है, इसका बिचार करते हुए चले गये॥ ३३-३४॥
पार्कण्डेयजी कहते हैं--इसके बाद असुरराज
हिरण्यकशिपुने मन्व्रियोंके साथ विचारकर अपने पुष्रकों
दण्डसे अजेय मानकर उसे शान्तिपूर्वक अपने पास
युलाया और जब बहे आकर प्रणाम करके खड़ा हो
गया, तब उस निर्मल एवं पवित्र इृदयवाले अपने पुत्रसे
कहा--' प्रहाद! अपने शरोरसे यदि दुष्ट पुत्र भौ उत्पत्र
हो जाय तो वह बधके योग्य नहीं है, यह सोचकर अब
तुझपर युद्धे दया आ गयो है'॥ ३५॥