१३.७ यजुर्वेद संहिता
{जल के संयोग से ही हरीतिमा विकसित होती है, इसलिए उसे हरिताभ कहा गया है । वायुमण्डल के साथ घुले जल के
कारण ही आकाश नीला दिखाई देता है । पृथ्वी पिण्डों को बाँध कर रखने की क्षमता भी जल में है तथा अपने प्रवाह के चिद
भी वह बना देता है। इस प्रकार जलरूपी अच्च को दिये गये सधी विशेषण विज्ञान-सप्पत हैं ।]
६७३. अजलमिन्दुमरुषं भुरण्युमग्निमीडे पूर्वचित्तिं नमोभि: । स पर्वभिक्रतुशः कल्पमानो
गां मा हिशसीरदितिं विराजम् ।४३ ॥
अविनाशी, ऐश्वर्य सम्पन्न, उत्तेजना से रहित, पूर्व ऋषियों द्वारा ग्रहण योग्य, अन्न द्वारा सबके पोषणकर्ता
अग्निदेव की हम स्तुति करते हैं । वे ख्याति प्राप्त अग्निदेव अमावस्या आदि पर्वो से प्रत्येक ऋतु के अनुकूल
कर्मों को सम्पादित करें तथा दुग्धादि देने में सक्षम अदिति (देवताओं की माता) के समान गौ (पोषण क्षमता से
सम्पन्न प्रकृति व्यवस्था) को नष्ट न करें ॥४३ ॥
६७४. वरूत्री त्वष्टर्वरुणस्य नाभिमविं जज्ञानाः*रजसः परस्मात्। महीश साहस्रीमसुरस्य
मायामग्ने मा हिशसीः परमे व्योमन् ॥४४ ॥
है अग्निदेव ! आप उत्तम आकाश में स्थापित, विभिन्न रूपों का निर्माण करने वाली, वरुण के नाभिस्वरूप,
रक्षणयोग्य, परम उच्च लोके से उत्पन्न हुई महिपामयी, असंख्य कौ कल्याणकारकः, प्राणियों की संरक्षक "अवि
को विनष्ट न करे ॥४२॥
[अवि भेड् को भी कहते है ओर रक्षण क्षमता को भी । प्रकृति की रक्षण क्षपता (पर्यावरण) को अग्नि के प्रदूषण परक
प्रयोगों से नष्ट न करने का संकेत है । आधुनिक विज्ञान यह भूल कर चुका है, ऊर्जा के ऐसे प्रयोग किये है, जिनसे उत्पन्न
प्रदूषण ने पर्यावरण के रक्षा कक्च (ओजोन कवच आदि) को खंडित किया है ।] |
६७५. यो अग्निरग्नेरष्यजायत शोकात्पृथिव्याऽ उत वा दिवस्परि । येन प्रजा विश्वकर्मा
जजान तमग्ने हेडः परि ते वृणक्तु ॥४५ ॥
विराट् अग्नि से उत्पन्न अग्निदेव, प्रजापति के संताप (अभाव दूर करने की पीड़ा) से उत्पन्न हुए , जो दिव्य
लोक व पृथ्वी को स्वतेज से प्रकाशमान करते हैं । सरष्टा ने जिससे सृष्टि की रचना की-ऐसे हे अग्निदेव ! याजक
कभी आपके क्रोध से पीड़ित न हौ ॥४५ ॥
६७६. चित्रं देवानामुदगादनीकं चश्लुर्मित्रस्थ वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवी
अन्तरिक्ष सूर्य 5 आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ४६ ॥
दिव्य रश्मियों के रूप में अदभुत शक्तियों से युक्त, मित्र, वरुण और अग्नि के नेत्ररूप तेजस्वी सूर्यदेव
दिव्यलोक, पृथिवो ओर अन्तरिक्ष तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहे हैं | वे सूर्यदेव जड़ और चेतन जगत् की
आत्मा (चेतना) रूप में उदित हुए हैं ॥४६ ॥
[सूर्य से ही पृथिवी पर जीवन होने के कारण इन्हें जगत् को आत्मा कहां गया है ।]
६७७. इमं मा हि सीर्दिपादं पशु सहल्लाक्षो मेधाय चीयमान:। मयुं पशुं मेधमग्ने
जुषस्व तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद । मयुं ते शुगृच्छतु य॑ द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु ॥४७॥
यज्ञ हेतु प्रकट किये गये है अग्निदेव ! आप मनुष्यों और पशुओं को पीडित न करें । आप हजारो नेतरो से
युक्त हो । हमारे लिए पौष्टिक अत्र एवं पशुओं को संवर्धित करें । वैभव को प्राप्त कर हम सुखो- समृद्ध जीवन
जिएँ । आपका संतापकारी क्रोध, हिंसक पशुओं को एवं जिनसे हम विद्रेष करते हैं, उन्हें ही पीड़ित करे ॥४७ ॥
६७८. इमं मा हिरु सीरेकशफं पशुं कनिक्रदं वाजिनं वाजिनेषु । गौरमारण्यमनु ते दिशामि
तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद । गौर थे शुगृच्छतु य॑ द्विष्पस्तं ते शुगृच्छतु ॥४८ ॥