% रुद्रसंकिता * १४७
अकाशझरूप हैं तथा ब्रकृतिसे भी परे हैं, उन जनि इन्द्रसहित सम्पूरणं देक्ता ओर असुर भी
परमेश्वर शिवको नमस्कार है, नमस्कार है। नहीं जानते हैं। शेश्वर ! आपको नमस्कार
यह. जगत्. जिनसे भिन्न नहीं कहा जाता,
जिनके चरणोंसे पृथ्वी तथा अन्यान्य अङ्गोसे
सम्पूर्ण दिज्ञाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, कामदेव एवं
अन्य देवता प्रकट हुए हैं और जिनकी
नाभिसे अन्तरिक्षका आविर्भान हुआ है,
उन्हीं आप भगवान् हाम्भुको मेरा नमस्कार
है। भो ! आप ही सबसे उल्कृष्ट परमात्मा
है, आप ही नाना प्रकारकी ब्िद्याएँ हैं, आप
ही हर (संहारकर्ता) है, आप हो सदल्हा
तथा परब्रह्म ई, आप सदा थिचारमें तत्पर
राहते हैं । जिसका म आदि कै, ज भध्य है और
न अन्त ही है, जिनसे सारा जगन् उत्पन्न हुआ
है तया जो सन और बाणीके विषय नहीं हैं,
उन महादेवजीकी स्तुति पै कैसे कर
सकूँगी ? ^
ब्रह्म आदि दैवता तथा तंपस्थाके धनी
है। तपोमय ! आपको नमस्कार है। देवेश्चर
चाथो ! पुष्पर असर शेष्ये \ आपको
ब्रारंबार मेरा नमस्कार है । †
ब्रह्माजी कहते है- नारद् ! संध्याका
यह स्तुतिपूर्ण वचन सुनकर उसके द्वारा
भलीर्भाति प्रदसित हुए धक्तयत्सल परमेश्वर
इकर प्रसन्न हुए। उसका ₹हारीर
वल्कल पुगचर्मते डका हुआ धा।
मस्तकपर पित्र जटाजूट शोभा प्रा रहा था ।
उस समय ०५५८५ कमलके सपान
उ कुप्कलाणे हुए मैंहको देखकर भगवान्
हर दयासे दधित ही उससे इस प्रकार बोले ।
महेशवरने कहा--भद्ठे ! मैं तुम्हारी इस
उत्तम तपस्थासे बहुत प्रसन्न हूँ। शुद्ध
देवि ! तुम्हारे इस स्तवनसे भी
मुझे बड़ा संतोष प्राप्त हुआ है। अतः इस
मुनि भी जिनके रूपोक्रा वर्णन नहीं कर समय अपनी इच्छाके अनुसार कोई वर
सकते, ` उन्ही परमेश्वरका वर्णन अधवा माँगो। जिस चरस तुम्हें प्रयोजन हो तथा जो
स्तवन मैं कैसे कर सकती हूँ ? प्रभो आप तुम्हारे मनमे हो, उसे मैं यहाँ अबइय पूर्ण
निर्गुण हैं, मै मूढ सरी आपके गुणोंको कैसे करूँगा। तुम्हारा कल्याण हो । में तुम्हारे
जान सकती हूँ ? आपका रूप तो ऐसा है, त्रत-नियमसे बहुत प्रसन्न है ।
= प्रधान पुरप्रौ य. कार्यश्थेन तिविर्गतों | तस्नादख्यक्रयराय सकय नमने नमः॥
थौ ऋण कुरुते सृष्टि यो तिष्णुः शुस्ते स्थितिम | संत्रभ्यति यो रृद्रलसमी तुयं नमो नमः॥
नः नमः क्वगणकपणाष दिव्याप्ृतज्ञानविभूति+4 | सगस्तलोकाजाभूतिदास रकपदारूपाय उरा२।५५ ॥
स्त्मपर नै जगदुच्यहे गदात् क्रितिदि! सर्व इनदु्मगोदः। याहिर्मुका आधितक्षाएरिज्र गै {04 वरति में तमोउस्तु ॥
ल्व फः परमात्मा च म चरा विनिष्र इरः । स्दक्ह्य य 7; ऋय विचाश्णपशणण- ॥
यश्व दिवं गध्यं ने गाक्तमम्ति जगः फ स्तोष्यामि ह दैलम्ङ्गपनसगोयरन् ॥
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गं चस्य व्र्मादिगो देषा म् तपोधना:। न क्णङ्णि कर्णनी4: कषे प पे॥
जिया सकते कि जया निशम्य शुणाः प्रभो नैन जानपिि चटूरुौ मेच्ा आपि भुप्सुगः॥
तमझुभ्व॑ गोन म्य तफेसय प्रणीः सनो देलेत्न भृ भूयो नपेऽलु ते॥
(वि पु रू सोः स० सौ" $॥ २४-२७)