हयग्रीव अगस्त्य वाद |] [ १५१
फल होगा और इनका क्या कैसा भी कोई उपाय भी है? बृहस्पतिजी ने
देवराज के इस वाक्य का श्रवण कर फिर उन्होंने धर्मार्थ के सहित परम
शुभ वाक्य में उत्तर दिया था ।३३-३४ है राजनु ! किये हुए कर्मों का फल
सैकड़ों करोड़ कल्पों में भी बिना प्रायश्चित्त और उपभोगों के कभी भी
विनाश नहीं होता है ।३५।
इन्द्र उवाच-
कर्म वा कीटशं ब्रह्मस्प्रायश्वितं च कीहशम् ।
तत्सवं श्रोतुमिच्छामि तन्मे विस्तरतो वद ॥३६
बृहस्पतिरुवाच-
हननस्तेयहिसाश्च पानमर्न्यागनारतिः ।
कमे पंचविधं प्राहुदुंष्कृतं धरणीपतेः ॥३७
ब्रह्मक्षत्रियविट्शुद्रगोतुरं गखरोष्ट्रका: ।
चतुष्पदो5ण्डजाब्जाश्च॒ तिर्य॑चोऽनस्थिकास्तथा ॥३८
अयुत च सहस्र च शत दश तथा दश ।
दशपंचत्रिरेकाथंमानुपूर्व्यादिदं भवेत् ।।३६
ब्रह्मक्षत्रविशां स्त्रीणामुक्तार्थे पापमादिशेत् ।
पितृमातृगुरुस्वामिपुत्राणां चैव निष्कृतिः ॥४०
गुवक्ञिया कृत पापं तदाजालंघनेऽथेकम् ।
दशब्राह्मणभृत्यथमेक॑ हन्यादद्रिजं नुषः ॥४२
गतनत्राह्यणभ्रृत्यथं ब्राह्मणो ब्राह्मणं तु वा ।
पंचब्रह्मविदामर्थे वैश्यमेकं तु दंडयेत् ॥४२
इन्द्रदेव ने कहा-हे ब्रह्मन् ! वह कर्म किस प्रकार का है और
प्रायश्चित्त कंसा है ? वह सब मैं सुनने का इच्छुक हैं । वह मुझे विस्तार
के साथ बतलाइए ।३६। बृहस्पति जी ने कहा--राजा के लिये पाँच तरह
के दुष्कृत कटे गये हँ किसी का हनन करना--स्तेय (चोरी)-हिसा--
मदिरा पान ओर अन्य अङ्खनाके साथमे रति करना ।३७। ब्राह्मण, क्षत्रिय
वेश्य, शूद्र, गौ--अश्व, गधा, ऊँट, चतुष्पद--अण्डज --अन्न-तिर्य॑क्-