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११ अवर्ववेद संहिता भाग-२

इस प्रकार जानने वाले, आहवनी य्‌ गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, यज्ञ, यजमान तथा पशुओं के प्रियधाम बनते हैं ॥१५

४०२७. सोऽनादिष्टं दिशमनु व्यचलत्‌ ॥१६ ॥

उस व्रात्य ने अनादिष्ट दिशा की ओर प्रस्थान किया ॥१६ ॥

४०२८. तमृतयश्चार्तवाश्च लोकाच लौक्याश्च मासाश्ार्धमासाश्वाहोरात्र चानुव्य चलन्‌ ॥१७

तब त्तु और ऋतु पदार्थ, लोक और लोक सम्बन्धी पदार्थ, महीने, पक्ष, दिन-रात्रि उसके अनुगामी

होकर चले ॥१७ ॥

४०२९. ऋतूनां च वै स आर्तवानां च लोकानां च लौक्यानां च मासानां

चार्धमासानां चाहोरात्रयोशच प्रियं धाम भवति य एवं खेद ॥१८ ॥

जो इस तत्त्व के ज्ञाता हैं, वे ऋतु- ऋतु सम्बन्धी, लोक- लोक सम्बन्धी पदार्थ, मास, पक्ष तथा दिन और

रात्रि के प्रिय धाम बनते रै ॥१८ ॥

४०३०. सोऽनावृत्तां दिशमनु व्यचलत्‌ ततो नावर््स्यन्नमन्यत ॥१९ ॥

उस (व्रात्य) ने अनावृत्त दिशा की ओर गमन किया और वहाँ से वापस न लौटने का मन में

चिन्तन किया ॥१९ ॥

४०३१. तं दितिश्चादितिश्चेड चेद््राणी चानुव्यचलन्‌ ॥२० ॥

तब उसके पीछे दिति. अदिति, इडा और इन्द्राणी ने गमन किया ॥२० ॥

४०३२. दितेश्च वै सोऽदितेश्चेडायाश्चेन्द्राण्याश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥२९१ ॥

जो ऐसा जानते है. वे दिति, अदिति, इडा ओर इन्द्राणी के प्रिय धाम बनते हैं ॥२१ ॥

४०३३. स दिशोऽनु व्य चलत्‌ तं विराडनु व्यचलत्‌ सर्वे च देवा: सर्वाश्च देवताः ॥२२ ॥

उस (व्रात्य) ने सभी दिशाओं की ओर गमन किया, तब विरार्‌ आदि समस्त देव उसके अनुकूल होकर

पीछे-पीछे चले ॥२२ ॥

४०३६. विराजश्च वै स सर्वेषां च देवानां सर्वासां च देवतानां ।

प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥२३॥

इस प्रकार का ज्ञान रखने वाले, विराट्‌ आदि देवसमूह तथा (अन्य) समस्त देवों के प्रिय धाम बनते हैं ॥२३ ॥

४०३५. स सर्वानन्त्देशाननु व्य चलत्‌ ॥२४॥

वह व्रात्य सभी अन्तरदेशे ( सभी दिशाओं के कोणो) मे अनुकूल होकर चला ॥२४ ॥

४०३६. तं प्रजापतिश्च परमेष्ठी च पिता च पितामह्वानुव्य चलन्‌ ॥२५॥

तब प्रजापति परमेष्टी, पिता ओर पितामह भी उसके अनुगामी होकर चले ॥२५ ॥

४०३७. प्रजापतेश्च वै स परमेष्ठिनश्च पितुश्च पितामहस्य च

प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥ २६ ॥

ऐसा जानने वाले, प्रजापति, परमेष्टी पिता ओर पितामह के प्रियधाम बनते हैं ॥२६ ॥

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