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आँधीके बिना ही वृक्ष उखड़-उखड़कर गिरे
लगे ॥ १३ ॥ शनि, राहु अदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र,
वृहस्पति आदि सम्य ग्रहों तथा बहुत-से नक्षत्रोंको
लोँघकर वक्रगतिसे चलने लगे तथा आपसमें युद्ध
करने लगे॥ १४॥ ऐसे ही ओर भी अनेकों भयङ्कर
उत्पात देखकर सनकादिके सिवा और सब जीव
भ्रयभोत हो गये तथा उन उत्पातोंका मर्म न जाननेके
कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसारका प्रलय
होनेवाला है ॥ १५॥
वे दोनों आदिदैत्य जन्मके अनन्तर शीघ्र ही अपने
फौलादके समान कठोर शरीरोंसे बढ़कर महान् पर्वतोंके
सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो
गया ॥ १६॥ वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुबर्णमय
मुकुटोंका अग्रभाग स्वर्गको स्पर्शं करता था और उनके
खिंशाल शरीरोंसे सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं।
उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद चमचमा रहे थे।
फृथ्वीपर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प
होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी
ज़गमगाती हुई चमकीली करघनीसे सुशोभित कमर
आपने प्रकाशसे सूर्यको भी मात करती थौ ॥ १७॥ वे
दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यपजीने उनका नामकरण
किया। उनमेंसे जो उनके वीर्यसे दितिके गर्भमें पहले
स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो
द्वितिके उदरसे पहले निकला, वह हिरण्याक्षके नासे
विख्यात हुआ॥ १८ ॥
हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीके वरसे मृत्युभयसे मुक्त हो
जानेके कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी
भुजाओंके बलसे लोकपालेकि सहित तीनों लोकोको
अपने वशम कर लिया॥ १९॥ वह अपने छोटे भाई
हिरण्याक्षकों बहुत चाहता था और वह भी खटा अपने
वे भाईका प्रिय कार्य करता रहता था। एक दिन वह
हिरण्याक्ष हाथ गदा लिये युद्धका अवसर ढूँढ़ता हुआ
स्वर्गलोकमें जा पहुँचा ॥ २० ॥ उसका वेग बड़ा असहा
था । उसके पैरोंमें सोनेके नृपुरोंकी नकार हो रही थी,
गलेमें विजयसूचक माला धारण की हुई थी और कंघेपर
विशाल गदा रखी हुई थौ ॥ २१॥ उसके मनोबल,
शारीरिक बल तथा ब्रह्माजीके वने उसे पतवाला कर
न तुेफिस्करी *
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रखा था; इसलिये वह सर्वथा और निर्भय हो
रहा था। उसे देखकर देवता लोग डरके मारे वैसे हो
जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुड़के डरसे साँप छिप
जाते हैं ॥ २२॥ जब दैत्यराज हिरण्याक्षने देखा कि मेरे
तेजके सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रांदि देवता भी छिप गये
है, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयङ्कर
गर्जना करने लगा ॥ २३ ॥ फिर वह महाबली दैत्य वहाँसे
लौटकर जलक्रीडा करनेके लिये मतवाले हाथीके समान
गहरे समुद्रमें घुस गया, जिसमें लहरोंकी बड़ी भयङ्कर
गर्जना हो रही थी॥ २४ ॥ ज्यों ही ठसने समुद्रमें पैर रखा
कि डरके मारे वरुणके सैनिक जलचर जीव हकबका गये
और किसी प्रकारकी छेड़छाड़ न करनेपर भी वे उसको
धाकसे ही घबराकर बहुत दूर भाग गये ॥ २५॥ महाबलौ
हिरण्याक्ष अनेक वर्षोतक समुद्रमें ही घूमता और सामने
किसी प्रतिपक्षीको न पाकर बार-बार वायुवेगसे उठी हुई
उसकी प्रचण्ड तस्ड्रॉपर ही अपनी लोहमयी गदाको
आजमाता रहा । इस प्रकार घुमते-घूमते वह वरुणकी
राजधानी विभावरीपुरीमें ज पहुँचा॥२६॥ वहाँ
पाताललोकके स्वामी, जलचरोंके अधिपति वरुणजीकों
देखकर उसने उनकी हसी उड़ाते हुए नीच मनुष्यकी भाँति
प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्गसे
कहा--'महाराज ! मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २७॥
प्रभो आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली,
हैं। जो लोग अपनेको बाँका वीर समझते थे, उनके
वीर्वमदको भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार
आपने संसारके समस्त दैत्य-दानवॉको जीतकर
राजसूय-यज्ञ भी किया था' ॥ २८ ॥
उस मदोन््मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास
करनेसे भगवान् वरुणको क्रोध तो बहुत आया, किंतु
अपने बुद्धिवलसे वे उसे पी गये और बदलेमें उससे
कहने लगे--'भाई ! हमें तो अब युद्धादिका कोई चाव
नहीं रह गया है॥ २९ ॥ भगवान् पुराणपुरुषके सिवा हमें
और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम-जैसे रणकुशल
वीरको युद्धमें सनतषट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हींके
पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे
वीर उन्हीका गुणगान किया करते हैं ॥ ३० ॥ वे बड़े वीर
है। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो