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+ अध्याय ७३ +

जलसे सूर्यदेवको अर्ध्य दे। इसके बाद “बिम्बमुद्रा "

दिखाते हुए आवाहन आदि उपचार अर्पित करे।

तदनन्तर सूर्यदेवकी प्रीतिक लिये गन्ध (चन्दन-

रोली) आदि समर्पित करे। तत्पश्चात्‌ “ पद्ममुद्रा ^

और “बिम्बमुद्रा' दिखाकर अग्नि आदि कोणोंमें हृदय

आदि अज्जोॉंकी पूजा करे। अग्निकोणमें '3& आं

हृदयाय नमः।' इस मन््रसे हृदयकी, नैऋत्यकोणमे

"ॐ भू: अर्काय शिरसे स्वाहा ।' इससे सिरकी,

वायव्यकोणमें ' ॐ भुवः सुरेशाय शिखायै वषट्‌ ।'

इससे शिखाकी, ईशानकोणे ' ॐ स्वः कवचाय

हुम्‌।' इससे कवचकी, इष्टदेव ओर उपासकके

बीचमें ' ॐ हां नेत्रत्रयाय वौषट्‌ ।' से नेत्रकी तथा

देवताके पश्चिमभागमें "वः अस्त्राय फट्‌।' इस

मन््रसे अस्त्रकी पूजा करे। इसके बाद पूर्वादि

दिशाओमिं मुद्राओंका प्रदर्शन करे ॥ ८-- ११ \॥

हृदय, सिर, शिखा और कवच --इनके लिये

पूर्वादि दिशाओं धेनुमुद्राका प्रदर्शन करे । नेत्रोंके

लिये गोशृङ्गकी मुद्रा दिखाये। अस्त्रके लिये

त्रासनीमुद्राकी योजना करे । तत्पश्चात्‌ ग्रहोको नमस्कार

और उनका पूजन करे । "ॐ सो सोमाय नपः।' इस

मन्त्रसे पूर्वे चन््रमाकी, ' ॐ बुं बुधाय नमः।' इस

मन््रसे दक्षिणमें बुधकी, ' ॐ चुं बृहस्पतये नमः'

इस मन््रसे पश्चिममें बृहस्पतिकी और " ॐ भं

भार्गवाय नमः।' इस मन्त्रसे उत्तरमें शुक्रकी पूजा

करे। इस तरह पूर्वादि दिशाओंमें चन्द्रमा आदि

ग्रहोंकी पूजा करके, अग्नि आदि कोणोंमें शेष

ग्रहोंका पूजन करे। यथा--' ॐ भौं भौमाय नम: ।'

इस मन्त्रसे अग्निकोणमें मङ्गलकी, ॐ शं

शनैश्चराय नमः।' इस मन्त्रसे नैरत्यकोणमें

शनैश्वरकी, "ॐ रां राहवे नमः' इस मन्त्रसे

वायव्यकोणमें राहुकी तथा ॐ के केतवे नपः।'

इस मनतरसे ईशानकोणे केतुकी गन्ध आदि उपचारोंसे

पूजा करे। खखोल्की (भगवान्‌ सूर्य) -के साथ इन

सब ग्रहोंका पूजन करना चाहिये ॥ १२--१४॥

मूलमन्त्रका' जप करके, अर्ध्यपात्रमें जल

लेकर सूर्यको , समर्पित करनेके पश्चात्‌ उनकी

स्तुति करे। इस तरह स्तुतिके पश्चात्‌ सामने मुँह

किये खड़े हुए सूर्यदेवको नमस्कार करके कहे-

"प्रभो! मेरे अपराधों और त्रुटियोंको आप क्षमा

करें ।' इसके बाद “अस्त्राय फद्‌।' इस मन्त्रसे

अणुसंहारका समाहरण करके “शिव! सूर्य!

(कल्याणमय सूर्यदेव !) '--ऐसा कहते हुए संहारिणी-

शक्ति या मुद्राके द्वारा सूर्यदेवके उपसंहत तेजको

अपने हृदय-कमलनमें स्थापित कर दे तथा सूर्यदेवका

निर्माल्य उनके पार्षद चण्डको अर्पित कर दे। इस

प्रकार जगदीश्वर सूर्यका पूजन करके उनके जप,

ध्यान और होम करनेसे साधकका सारा मनोरथ

सिद्ध होता है॥ १५--१७॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “सूर्वप्रजाकी विधिका वर्णन” नामक

तिहत्तरवाँ अध्याय पग्र हुआ॥ ७३ ॥#

. मन्त्रमहार्णबमें हृदयादि अद्भोंके पूजनका क्रम इस प्रकार दिया णवा है--

अग्निकोणे - 35 सत्यतेजोज्वालामणे हुं फट्‌ स्वाहा हृदयाव नमः हृदयत्रौपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। निर्कृतिकोणे -- ॐ>

ब्रह्मतेजो ज्वालामणे हं फट्‌ स्वाहा शिरसे स्वाहा सिर: श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । वायव्ये - ॐ विष्णुतेजोज्वालामणे हुं फर्‌ स्वाहा

शिखायै वषट्‌ शिछ्लात्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। एेशान्दे - ॐ रुद्रतेजोज्वालामणे हुं फट्‌ स्वाहा कवचाय हुं कवचश्रीपादुकां

पूजयामि तर्षयामि नमः। पुण्य-पूजकयोर्पध्ये - ॐ> अग्वितेजोज्वालामणे हुं फट स्वाहा नेन्नपश्रयाय चौषद्‌ नेतरश्रौपादुकां पूजयापि तर्पयापि

जमः । देवतापर्चिमे - ॐ सर्वतेजोज्वालामणे हुं फट्‌ स्वाहा अस्य फट्‌ अस्वन्नोपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । यहाँ मूलकी व्याख्यामें

भौ इसी क्रमसे संगति लगाते हुए अर्धं किया गया है।

४. ' शारदातिलक ' के अनुसार सूर्वका दशाक्षरं मूलमन्त्र इस प्रकार है -' ॐ> हीं घृणि: सूर्य्य आदित्य श्रो ।' इति दशाक्षरो

मन्त्र: | किंतु इस ग्रन्थमें ' ॐ हं खं ' इन बीजोंके साथ ' खोल्काय नमः ।' इस षडक्षर मन्त्रका उल्लेख है । अतः इसीको यहाँ मूल मन्त्र

समझना चाहिये।

362 अग्नि पुराण ६

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