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* गौतमके द्वारा भगवान्‌ शंकरकी स्तुति तथा गौतमी गङ्गाका माहात्म्य * १४५

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हैं कि गौतमी गङ्गा (गोदावरी) सब तीर्थोंस . जहाँतक पहुँचकर सागरमें मिली हैं, वहाँतक वे

अधिक पवित्र हैं।' यों कहकर वे अन्तरधनि हो | देवमयी मानी गयी हैं। महर्षि गौतमके छोड़नेपर

गये। लोकपूजित भगवान्‌ शिवके चले जानेपर वे पूर्वसमुद्रकी ओर चली गयीं। उस समय

गौतमने उनकी आज्ञासे जटासहित सरिताओंमें | देवर्षियेद्रारा सेवित कल्याणमयी जगन्माता गङ्गाकी

श्रेष्ठ गड़ाको साथ ले देवताओंसे घिरकर ब्रह्मगिरिमें , मुनिश्रेष्ठ गौतमने परिक्रमा की। इसके बाद उन्होंने

प्रवेश किया। उस समय महाभाग महर्षि, ब्राह्मण | देवेश्वर भगवान्‌ श्रयम्बकका पूजन किया। उनके

तथा क्षत्रिय भी आनन्दमग्र होकर जय-जयकार , स्मरण करते हो करुणासिन्धु भगवान्‌ शिव वहाँ

करते हुए ब्रह्मर्षि गौतमकी प्रशंसा करने लगे। | प्रकट हो गये। पूजा करके महर्षि गौतमने कहा--

पवित्र एवं संयत चित्तवाले गौतमने जटाको | "देवदेव महेश्वर! आप सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये

ब्रह्मगिरिके शिखरपर रखा और भगवान्‌ शङ्करका | मुझे इस तीर्थे खान करनेकी विधि बताइये।'

स्मरण करते हुए गङ्गाजीसे हाथ जोड़कर कहा--' तीन | भगवान्‌ शिव बोले--महर्षे ! गोदावरीमें स्नान

नेत्रॉंचाले भगवान्‌ शिवकी जटासे प्रकट हुई माता | करनेकी सम्पूर्ण विधि सुनो। पहले नान्दीमुख

गङ्गा! तुम सब अभीष्टोंकों देनेवाली और शान्त हो। | श्राद्ध करके शरीरकी शुद्धि करे, फिर ब्राह्मणोंको

मेरा अपराध क्षमा करो और सुखपूर्वक यहाँसे | भोजन कराये और उनसे स्नान करनेकी आज्ञा ले।

प्रवाहित होकर जगत्‌॒का कल्याण करो। देवि ! मैंने | तदनन्तर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए गोदावरी

तीनों लोकोंका उपकार करनेके लिये तुम्हारी याचना | नदीमें स्नान करनेके लिये जाय। उस समय पतित

की है और भगवान्‌ शंकरने भी इसी उद्देश्यकी | मनुष्योंके साथ वार्तालाप न करे। जिसके हाथ,

सिद्धिके लिये तुम्हें दिया है। अत: हमारा यह | पैर और मन भलीभाँति संयममें रहते हैं, वही

मनोरथ असफल नहीं होना चाहिये।' तीर्थका पूरा फल पाता है। भावदोष (दुर्भावना)-

गौतमका यह वचन सुनकर भगवती गङ्गाने , का परित्याग करके अपने धर्ममें स्थिर रहे और

उसे स्वीकार किया और अपने-आपको तीन | थके-माँदे, पीड़ित मनुष्योंकी सेवा करते हुए उन्हें

स्वरूपे विभक्त करके स्वर्गलोक, मर्त्यलोक | यथायोग्य अन्न दे। जिनके पास कुछ नहीं है, ऐसे

एवं रसातलमें कैल गयीं। स्वर्गलोके उनके चार | साधुओंको वस्त्र ओर कम्बल दे। भगवान्‌ विष्णुको

रूप हुए, मर्त्यलोकमें वे सात धाराओंमें बहने | तथा गङ्गाजौके प्रकट होनेकी दिव्य कथा सुने।

लगीं तथा रसातलमे भी उनकी चार धाराएँ हई । । इस विधिसे यात्रा करनेवाला मनुष्य तीर्थके उत्तम

इस प्रकार एक हो गङ्गाके पंद्रह आकार हो गये । | फलका भागी होता है ।

गङ्गा देवी सर्वत्र हैं, सर्वभूतस्वरूपा है, सब ¦ गौतम! गोदावरी नदीमें दो-दो हाथ भूमिपर

पार्पौका नाश करनेवालो तथा सम्पूर्ण अभीष्ट | तीर्थं होंगे। उनमें मैं स्वयं सर्वत्र रहकर सबकी

वस्तुओंको देनेवाली हैं। वेदमें सदा उन्होकि ' समस्त कामनाओंको पूर्ण करता रहूँगा। सरिताओंमें

यशका गान किया जाता है। जिनकी बुद्धि | श्रेष्ठ नर्मदा अमरकण्टकपर्वतपर अधिक उत्तम

अज्ञानसे मोहित है, बे भर्त्यलोकके निवासी मानो गयी हैं। यमुनाका विशेष महत्त्व उस

समझते हैं कि गड्भा केवल मर्त्यलोकमें हौ हैं, | स्थानपर है, जहाँ वे गङ्गासे मिली हैं। सरस्वती

पाताल अथवा स्वर्गमें नहीं हैं। भगवती गङ्गा , नदी प्रभासतीर्थमें श्रेष्ठ बतायी गयी हैं। वृष्णा,

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