९४६ * पुराणौ परम॑ पुण्यं भविष्य सर्वप्तौर्यदम् « [ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
ओर बढ़ गये। प्राप्तिकि समान कोई सुख नहीं, माताके समान कोई आश्रय नहीं
सुमन्तु मुनि बोले--राजन्! अधिक कहनेसे क्या और भगवान् सूर्यके समान कोई देवता नहीं, वैसे हो
त््रभ, क्योकि जैसे वेदसे श्रेष्ठ अन्य कोई दाख नहीं, गङ्गे
समान कोई नदी नहीं, अश्वमेघके समान कोई यज्ञ नहीं, पुत्र-
भोजकॉके/ समन भगवान् सूर्यके अन्य कोई प्रिय नहीं हैं।
५, {अध्याय १४६-१४७)
भगवान् सूर्यके कालात्मक चक्रका वर्णन
सुमन्तु मुनि बोखे-- राजन् ! एक बार महातेजस्वी
साम्यने अपने पिता भगवान् श्रीकष्णके हाथमें ज्वाला-
माला ओंसे प्रदीम्त सुदर्शनचक्रकों देखकर पुछा--'देव !
आपके हाथमे जो यह सूर्यके समान चक्र दिखलायी दे रहा है,
यह आपको कैसे प्राप्त हुआ तथा भगवान् सूर्यके चक्रको
कमलकी उपमा कैसे दी गयी है ? इसे आप बतायें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--महाबाहो ! तुमने अच्छी
बात पूछी है, इसे मैं संश्षेपर्में बतल रहा हूँ। मैंने अत्यन्त
श्रद्धापूर्वक दिव्य हजार वर्षोतक भगवान् सूर्यकी आराधना कर
इस चक्रको प्राप्त किया है। भगवान् भास्कर आकावगामें
विचरण करते रहते हैं, जिनके रध-चक्रके नाभिमण्डलमें चन्द्र
आदि प्रह अवस्थित हैं। अरोंपें द्वाददा आदित्य बतलाये गये
है, पृथ्वी आदि तत्त्व मार्गमे पड़नेवाले तत्त्व हैं, इन तत्त्वॉंसे यह
कलात्मक चक्र व्याप्त है। भगवान् सूर्यने अपने इस चक्रके
समान ही दूसरा चक्र मुझे प्रदान किया है।
इस कमलरूप चक्रके पट्दल ही छः ऋतु हैं। कमलके
मध्यमें जो पुरुष अधिष्ठित हैं, ये ही भगवान् सूर्य हैं। जो भूत,
भविष्य तथा वर्तमान तीन काल कहे गये हैं, वे चक्रकी तीन
नभियाँ हैं। आरह महीने अरे तथा पक्ष परिधियाँ हैं, नेमियाँ
दक्षिणायने तथा उत्तरायण दो अयन है, नक्षत्र, ग्रह तथा योग
आदि भी इसी चक्रमे अवस्थित है । स्थूल और सृक्ष्मके भेदसे
यह चक्र सर्वत्र व्याप्त है।
दुर्शेंका दपन करनेके लिये मैंने इस चक्रके आराधनाके
द्वारा भगवान् सूर्यसे प्राप्त किया है। इसलिये ग्रहौ और तत्त्वोंसे
समन्वित इस चक्रकी मैं निरन्तर पूजा करता रहता हूँ। जो
चक्रमे स्थित भगवान् सूर्यकी भक्तिपूर्वक पूजा करता है, वह
तेजमें भगवान् सूर्यके समान हो जाता है। सप्र्मीको जो
भागवान् सूर्यका चक्र अड्भित कर उनकी रक्तचन्दन , करवीर-
पुष्प, कुकु, रक्त कमल, घूष, दीप, नैवेद्य, चाम, छत्र एवं
फल आदिसे पूजा करता है तथा विविध नैयेधोंका भोग
लगाता है, पुण्य कथाओका श्रवण करता है, वह अपनी
सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार जो
संक्रान्ति तथा ग्रहण आदिमे चक्रकी पूजा करता है, उसके
ऊपर सभी अह प्रसन्न हो जाते हैं, वह सम्पूर्ण रोगौ ओर
दुःखोंसे रहित हो जाता है तथा समस्त ऐश्वरयोंसे युक्त होकर
चिर्जीवी होता है। (अध्याय १४८)
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सूर्यचक्रका निर्माण और सूर्य -दीक्षाकी विधि
साम्बने पूछा--भगवन् ! भगवान् सूर्यके चक्रका और
उसमें स्थित प्यक कितने विस्तारे किस प्रकार निर्माण करना
चाहिये तधा नेमि, अर और नाभिका विभाग किस प्रकार
करना चाहिये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले-- साम्ब ! चक्र चौंसठ
अङगुखका और नेमि आठ अङ्गुलकी बनानी चाहिये। नाभिका
विस्तार भी आठ होना चाहिये और पद्य नाधिका
तीन गुना अर्थात् चौबीस अङ्गुलका होना चाहिये । कमले
नाभि, कर्णिका और केसर भी बनाने चाहिये । नाभिसे
कमलकी ऊँचाई अधिक होनी चाहिये । वहींपर द्वारके कोणमें
कपमल-पुष्पके मुखकी कल्पना करनी चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु,
शिव और इन्द्रके लिये चार ड्ारॉकी कल्पना करनी चाहिये ।
दको बनानेके पश्चात् ब्रह्मा आदि देवताओंका उनके
नाम-मनत्रोसे भक्तिपूर्वटक्ष आवाहन कर पूजन करना चाहिये ।
अर्क-मष्डलकी पूजाके लिये इस यज्ञ-क्रियाके अनुरूप
दीक्षित होना चाहिये, भगवान् सूर्यने इसे मुझसे पूर्वकालमें
कहा था।
साम्बने पूछा--भगवन् ! सूर्यचक्र-यज्ञके लिये
देवताओनि किन मन्त्रोंको कहा है ? तथा यज्ञके स्वरूप और
क्रमकों भी आप बतानेका कृपा करें।