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वामा, ज्येष्टा तथा रौद्री शक्ति भी कहते हैं।

ब्रह्मा, विष्णु तथा स्द्र-क्रमशः ये ही तीनों

गुण हैं एवं सृष्टिके उत्पादक, पालक तथा

संहारक हैं। शरीरके अंदर तीन रत्न नदिया

हैं, जिनका नाम स्थूल, सूक्ष्म तथा पर है।

इनका श्वेत वर्णं है। इनसे सदैव अमृत टपकता

रहता है, जिससे आत्मा सदैव आप्लाबित रहता

है। इस प्रकार उसका दिन-रात ध्यान करते

रहना चाहिये। देवि! ऐसे साधकका शरीर अजर

हो जाता है तथा उसे शिव-सायुज्यकी प्राप्ति

हो जाती है। प्रथमतः अङ्गुष्ठ आदिमे, नेत्रे

तथा देहमें भी अङ्गन्यास करे, तत्पश्चात्‌ मृत्युंजयकी

अर्चना करके यात्रा करनेवाला संग्राम आदिर

विजयी होता है। आकाश शून्य है, निराधार

है तथा शब्द-गुणवाला है। वायुर्मे स्पर्श गुण

है। बह तिरछा झुककर स्पर्शं करता है।

रूपकी अर्थात्‌ अग्निकी ऊर्ध्वगति बतलायी

गयी है तथा जलकी अधोगति होती है।

सब स्थानोंकों छोड़कर गन्ध-गुणवाली पृथ्वी

मध्यमें रहकर सबके आधार-रूपमें विद्यमान

है॥ १५--२० ३॥

नाभिके मूलमें अर्थात्‌ मेरुदण्डकी जडे

कंदके स्वरूपमें श्रीशिवजी सुशोभित हैं। वहींपर

शक्ति-समुदायके साथ सूर्य, चन्द्रमा तथा भगवान्‌

विष्णु रहते हैं और पञ्चतन्मात्राओंके साथ दस

प्रकारके प्राण भी रहते हैं। कालाग्निके समान

देदीप्यमान वह शिवजीकी मूर्ति सदैव चमकती

रहती है। वही चराचर जीवलोकका प्राण है।

उस मन््रपीठके नष्ट होनेपर वायुस्वरूप जीवका

नाश समझना चाहिये*॥ २१--२३ ॥

इस ग्कार आदि आग्नेय महापुराणमें 'वृद्धजवार्णव-सम्बन्धी ज्योतिष शासत्रका सार-कथ्त्र” तागक

एक सौ चौँवीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १२४॥

(~

एक सौ पचीसवां अध्याय

युद्धजयार्णव -सम्बन्धी अनेक प्रकारके चक्रोंका वर्णन

शंकरजीने कहा --' ॐ हीं कर्णमोटनि बहुरूपे | कार्यमें लगा हुआ क्रोधी साधक उससे संग्रामादि

बहुदंष्ट हुं फ्‌, 3० हः, ॐ ग्रस ग्रस, कृन्त

कृन्तच्छक च्छक हूं फट्‌ नमः ।' इस मन्त्रका नाम

"कर्णमोरी महाविद्या" है । यह सभी वर्णोमिं रक्षा

करनेवाली है । इस मन्त्रको केवल पढ़नेसे ही

मनुष्य क्रोधाविष्ट हो जाता है तथा उसके नेत्र

लाल हो जाते है । यह मन्त्र मारण, पातन, मोहन

एवं उच्चाटनमें उपयुक्त होता है ॥ १-२॥

अब स्वरोदयके साथ पाँच प्रकारके वायुका

स्थान तथा उसका प्रयोजन कहता हँ । नाभिसे

लेकर हदयतक जो वायुका संचार होता रहता

है, उसको * मारुतचक्र ' कहते हैं। जप तथा होम-

कार्यो उच्चाटन-कर्म करता है । कानसे लेकर

नेत्रतक जो वायु है, उससे प्रभेदन-कार्य करे एवं

दयसे गुदामार्गतक जो वायु है, उससे ज्वर-दाह

तथा शत्रुओंका मारण-कार्य करना चाहिये । इसी

वायुका नाम ' वायुचक्र ' दै । हदयसे लेकर कण्ठतक

जो वायु है, उसका नाम "रस" है। इसे हौ

*रसचक्र' कहते हैँ । उससे शान्तिका प्रयोग किया

जाता है तथा पौष्टिक रसके समान उसका गुण

है। भौंहसे लेकर नासिकाके अग्रभागतक जो वायु

है, उसका नाम “दिव्य” है। इसे ही ' तेजश्चक्र'

कहते है । गन्ध इसका गुण है तथा इससे स्तम्भन

* यह विषय इस अध्यायके पूर्व अध्यायमें " स्वरचक्र ' के अन्तति आ गया है।

362 अग्नि पराण १०

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