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एक सौ चौबीसवाँ अध्याय

युद्धजयार्णवीय ज्यौतिषशास्त्रका सार

अग्निदेव कहते हैं-- अब मैं युद्धजयार्णव-

प्रकरणमें ज्योतिषशास्त्रकी सारभूत बेला (समय),

मन्त्र ओर औषध आदि वस्तुओंका उसी प्रकार

वर्णन करूँगा, जिस तरह शंकरजीने पार्वतीजीसे

कहा था॥ १॥

पार्वतीजीने पूछा-- भगवन्‌! देबताओंने

(देवासुर-संग्रामे ) दानबोंपर जिस उपायसे विजय

पायी धी, उसका तथा युद्धजयार्णवोक्त शुभाशुभ-

विवेकादि रूप ज्ञानका वर्णन कीजिये॥ २॥

शंकरजी बोले-- मूलदेव (परमात्मा)-कौ

इच्छासे पंद्रह अक्षरवाली एक शक्ति पैदा हुई।

उसीसे चराचर जीवोंकी सृष्टि हुई । उस शक्तिकी

आराधना करनेसे मनुष्य सब प्रकारके अर्थोका

ज्ञाता हो जाता है। अब पाँच मन्त्रोंसे बने

हुए मन्त्रपीठका वर्णन करूँगा। वे मन्त्र सभी

मन्त्रके जीवन-मरणमें अर्थात्‌ “अस्ति तथा

"नास्ति" रूप सत्ता स्थित हैँ । ऋग्वेद, यजुर्वेद,

सामवेद, अथर्ववेद -इन चारों वेदोकि मन्त्रोंको

प्रथम मन्त्र कहते है । सद्योजातादि मन्त्र द्वितीय

मन्त्र हैं एवं ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र-ये तृतीय

मन्त्रके स्वरूप हैं। ईश (मैं), सात शिखावाले

अग्नि तथा इन्द्रादि देवता-ये चौथे मन्त्रके

स्वरूप हैं। अ, इ, ठ, ए, ओ--ये पाँचों स्वर

पञ्चम मन्त्रके स्वरूप है । इन्हीं स्वररोको मूलब्रह्म

भी कहते ह ॥ ३-६॥

(अब पञ्च स्वरोकी उत्पत्ति कह रहे है - )

जिस तरह लकड़ीमें व्यापक अग्निक प्रतीति

बिना जलाये नहीं होती है, उसी तरह शरीरें

विद्यमान शिव-शक्तिकी प्रतौति ज्ञानके बिना नहीं

होती है। महादेवी पार्वती! पहले ॐकारस्वरसे

विभूषित शक्तिकी उत्पत्ति हई । तत्पश्चात्‌ बिन्दु

"एकार ' रूपमे परिणत हुआ। पुनः ओंकारमे शब्द

पैदा हुआ, जिससे “उकार ' का उद्गम हुआ। यह

"उकार" हृदयमें शब्द करता हुआ विद्यमान रहता

है । ' अर्धचन्द्र' से मोक्ष-मार्गको बतानेवाले ' इकार”

का प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर भोग तथा मोक्ष

प्रदान करनेवाला अव्यक्त अकार ' उत्पन्न हुआ।

वहौ *अकार' सर्वशक्तिमान्‌ एवं प्रवृत्ति तथा

निवृत्तिका बोधक है॥ ७ --१०॥

(अब शरीरम पाँचों स्वरोका स्थान कह रहे

हैं--) 'अ' स्वर शरीरमे प्राण अर्थात्‌ श्वासरूपसे

स्थिर होकर विद्यमान रहता है। इसीका नाम

"इडा" है । ' इकार प्रतिष्ठा नामसे रहकर रसरूपे

तथा पालक-स्वरूपर्मे रहता है । इसे ही " पिङ्गलाः

कहते है । 'ई” स्वरको ' क्रूरा शक्ति" कहते है ।

"हर-बीज' (उकार) स्वर शरीरमें अग्निरूपसे

रहता है । यही “ समान-बोधिका विद्या' है । इसे

"गान्धारौ ' कहते है । इसमें 'दहनात्मिका' शक्ति

है । ' एकार' स्वर शरीरमें जलरूपसे रहता है।

इसमें शान्ति-क्रिया है तथा “ओकार' स्वर

शरीरे वायुरूपसे रहता है । यह अपान, व्यान,

उदान आदि पाँच स्वरूपोंमें होकर स्पर्श करता

हुआ गतिशील रहता है। पाँचों स्वरोका सम्मिलित

सूक्ष्म रूप जो *ओंकार' है, वह “शान्त्यतीत'

नामसे बोधित होकर शब्द-गुणवाले आकाश-

रूपमे रहता है । इस तरह पाँचों स्वर (अ, इ, ठ,

ए. ओ) हुए, जिनके स्वामी क्रमसे मङ्गल, बुध,

गुरु, शुक्र तथा शनि ग्रह हुए। ककारादि वर्णं इन

स्वरोकि नीचे होते हैं। ये ही संसारके मूल कारण

हैं। इन्हे चराचर सब पदार्थोका ज्ञान होता

है॥ ११--१४ ३ ॥

अब मैं विद्यापीठका स्वरूप बतलाता हूँ,

जिसमें 'ओंकार' शिवरूपसे कहा गया है और

“उमा! स्वयं सोम अर्थात्‌ अमृतरूपसे है। इन्हीको

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