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सिंह: प्रसेनमवरधीत्सिंहों जाम्बबत्ता हतः ।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्ोष स्यमन्तकः ॥ ४२
इत्याकरण्योपलब्धस्यपन्तको.ऽन्तःप्रविष्ठः
कुमारक्रीडनकीकृतं च धात्र्या हस्ते तेजोभि-
जाज्वल्यमानं स्यमन्तकं ददर ॥ ४३॥ तं
च स्यमन्तकाथिलषितचक्षुषपपूर्वपुरुषमागतं
समवेक्ष्य धात्री त्राहि त्राहीति व्याजहार ॥ ४४ ॥
तदार्तरवश्रवणानन्तरं चामर्षपूर्णहदवः स
जाम्बवानाजगाप ॥ ४५॥ तयोश्च परस्पर-
मुद्धतामर्षयोयुद्धमेकविंदातिदिनान्यभवत् ॥ ४६ ॥
ते च यदुसैनिकास्तत्र सप्ताष्टदिनानि तन्निष्क्रान्ति-
मुदीक्षमाणास्तस्थुः । ४७ ॥ अनिष्क्रणे च
मधुरिपुरसाववर्यमत्न बिलेउत्यन्ते नाझमखाप्तो
भविष्यत्यन्यथा तस्य॒ जीवतः कथ्मेताबन्ति
दिनानि शत्रुजये व्याक्षेपो भविष्यतीति कृताध्य-
साया द्वारकामागम्य हतः कृष्ण इति
कथयामासुः ॥ ४८ ॥ तद्रान्धवाश्च तत्कालोचित-
मखिल्गमुत्ताक्रियाकलापं चक्रुः ॥ ४९ ॥
ततश्चास्य युद्धयमानस्यातिश्रद्धादत्तविशिष्टोप-
पात्रयुक्तान्रतोयादिना श्रीकृष्णस्य बलप्राण-
पुष्िरभूत् ॥ ५० ॥ इतरस्थानुदिनमतिगुरुपुरुष-
भेद्यमानस्य अतिनिष्ुरप्रहारपातपीडिताखिला-
यवस्य निराहारतया बलहानिरभूत् ॥ ५१ ॥
निर्जितश्च भगवता जाम्बवाद्मणिपत्य व्याजहार
॥ ५२ ॥ सुरासुरगन्धर्वयक्षराक्षसादिभिरष्य-
खिलेभ्भवान्न जेतुं शाक्यः किमुतावनिगोचरैरल्प-
वीरयैनीर्मराक्यवभूतैश्च तिर्यग्योन्यनुसृतिभिः कि
पुनरस्मद्धिधैरवङयं भवताऽस्मत्स्वामिना रामेणेव
नारायणस्य सकलजगत्परायणस्यांहेन भगवता
भवितव्यपिल्युक्तस्तस्यै भगवानखित्मावनि-
भ्रारावतरणार्थमवतरणमचचक्षे ॥ ५३ ॥ प्रीत्य-
भिव्यञ्जितकरतलस्यर्निन चैनमपगतयुद्धखेदं
चकार ॥ ५४ ॥
चतुर्थ अंक
२७३
सिंहने प्रसेककों मारा और सिंहक्ये जाम्बवानने; ले
सुकुमार ! तू रो मत यह स्यमन्तकमणि तेरी ही है ॥ ४२ ॥
यह सुननेसे स्यमन्तकका पता लगनेपर भगवानने
भीतर जाकर देखा कि सुकुमारक लिये स्िल्लौना बनी हुई
स्यमन्तक्पणि घात्रीके हाथपर अपने तेजसे देदोप्यमान हो
रही दै ॥ ४३॥ स्यमन्त्कमणिकौ ओर अभिलाषापूर्ण
दृष्टिसे देखते हुए एक विलश्चण पुरुषको वहा आया देख
धात्री 'त्राहि-आाहि' करके चिल्लाने लगी || ४४॥
उसकी आर्त्त-ताणीको सुनकर जाम्बवान् क्ररेघपूर्ण
हृदयसे वल्य आया | ४५ ॥ फिर परस्पर रोष बढ़ जानेसे
उन दोनॉका इककीस दिनतक भोर युद्ध हुआ ॥ ४६॥
पर्वतके पास भगवानकी प्रतोक्षा करनेवारे यादव-सैनिक
सात-आठ दिनतक उनके गुफासे बाहर आनेकी बार
देखते रहे । ४७ ॥ किंतु जब इतने दिनोंतक वे उसमेंसे न
निकले तो उन्होंने समझा कि "अवद्य हो श्रीमधुसूदन इस
गुफामें मारे गये, नहीं तो जीवित रहनेपर जत्रुके जीतनेमें
उन्हें इतने दिन क्यो लगते ?' ऐसा निश्चय कर वे दवारकाम
चले आये और यहाँ. कष्ट दिया कि श्रीकृष्ण मारे
गये ॥ ४८ ॥ उनके वन्धुञनि यह सुनकर समयोचित
सम्पूर्ण औध्व॑देहिक कर्म कर दिये ॥ ४९ ॥
इधर, अति श्रद्धापूर्वकं दिये हुए विशिष्ट पात्रोंसहित
इनके अन्न और जलसे युद्ध करते सपय श्रीकष्णननदरके
बल और त्राणकी पुष्टि हो गयो ॥ ५० ॥ तथा अति महान्
पुरुषके द्वारा मर्दित होते हुए उनके अत्यन्त निष्ठुर प्रहारोंकि
आधघातसे पीडित शरीरवाले जाम्नवान्का नक नियाहार
रहनेसे क्षीण दो गया ॥ ५१ ॥ अन्ते भगवानसे पराजित
होकर आम्बयानने उन्हें प्रणाम करके कहा-- ॥ ५२ ॥
“भगवन् ! आपको तो देवता, असुर, गन्धर्वं, यक्ष,
राक्षस आदि कोई भी नही जीत सकते, फिर पृथिवीतलपर
रहनेवाले अल्पवीर्य मनुष्य अधवा मनुष्येकि अवयवभूत
हम-जैसे तिर्यक्-योनिगत जीवॉकी तो बात ही क्या है ?
अव्य ही आप हमारे प्रभु श्रोगमचद्धजीके समान सकल
लोक-प्रतिपारक भगवान् नारायणके ही अंशसे प्रकट हुए
दै ।'" जाम्बवानके ऐसा कहनेपर भगवानने पृथिवीका भार
उतारनेके ह्थियि अपने अवतार सेनक सम्पूर्ण वतान्त
उससे कह दिया और उसे प्रीतिपूर्वक अपने हाथसे छूकर
युद्धके श्रमसे रहित कर दिया ॥ ५३-५४ ॥