काण्ड-७ सूक्त- ४३ १५
[४१ - सरस्वान् सूक्त (४०) |
[ ऋषि- प्रस्कण्व । देवता- सरस्वान् । छन्द ्रष्टप, १ भुरिक् त्रिष्टप् ।]
९८२७. यस्य व्रतं पशवो यन्ति सरवे यस्य व्रत उपतिष्ठन्त आपः ।
यस्य व्रते पुष्टपतिर्निविष्टस्तं सरस्वन्तमवसे हवामहे ॥१ ॥
जिन सरस्वान् देवता के कर्मों का समस्त पशु अनुगमन करते है एवं सभौ जल परस्पर मिलते हैं, वृष्टि एवं
पुष्टि जिनके अधीन हैं, जिनके कर्मो में समस्त वस्तुओ के पोषणपति निविष्ट हैं, रक्षा एवं तृप्ति के लिए हम उन
सरस्वान् देव का आवाहन करते हैं ॥१ ॥
९८२८. आ प्रत्यञ्चं दाशुषे दाश्च॑सं सरस्वन्तं पुष्टपतिं रयिष्ठाम्।
रायस्पोषं श्रवस्युं वसाना इह हुवेम सदनं रयीणाम् ॥२ ॥
पुष्टि के स्वामी, धन स्थान मे स्थित धन के स्वाभी, यजमानो को अन्न देने की ईच्छा वाले हविदाता से प्रसन्न
हो उनके अभिमुख होकर कामनाओं को पूर्ति करने वाले सरस्वान् की. हम हवि द्वारा सेवा करते हुए बुलाते है ॥२॥
[ ४२ - सुपर्णं सूक्त (४९) |
[ ऋषि- प्रस्कण्व । देवता- श्येन । छन्द-जगती, २ तिष्टप् ।]
१८२९. अति धन्वान्यत्यपस्ततर्द श्येनो नृचक्षा अवसानदर्शः ।
तरन् विश्वान्यवरा रजांसीन्द्रेण सख्या शिव आ जगम्यात् ॥९ ॥
समस्त प्राणियों के कर्मा के साक्षी, प्रशंसनीय गति वाले. अनन्त द्युलोक मे दौखने वाले. मरुस्थलों में कृपा
करके वर्षा करने वाले सूर्यदेव अपने मित्र इन्द्रदेव को द्युलोक से नीचे के लोको का अतिक्रमण कर, हमारे नवीन
घर बनाने के स्थल पे लाएँ ॥१ ॥ |
१८३०. श्येनो नृचक्षा दिव्यः सुपर्णः सहस्रपाच्छतयोनिर्वयोधाः ।
सनो नि यच्छाद् वसु यत् पराभृतमस्माकमस्तु पितृषु स्वधावत् ॥२ ॥
अनन्त किरणो वाले, अपरिमित कर्मफल वाले, सुन्दर गति वाले, अन्न को धारण करने वाले सूर्यदेव हमें
चिरस्थायी करे । हमारे द्वारा अर्पित धन अथवा हवि पितरे के लिए स्वधारूप (तृप्तिदायक) हो ॥२ ॥
[ ४३ - पापमोचन सूक्त (४२) ]
( ऋषि- प्रस्कण्व । देवता- सोमारुद्र । छन्द- विष्टुप् ।]
१८६१. सोमारुद्रा वि वृहतं विषूचीममीवा या नो गयमाविवेश ।
बाधेथां दूरं निऋतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुपुक्तमस्मत् ।।९ ॥
है सोम और रुद्रदेव ! आप विषूचिका रोग एवं अमौवा रोग को हमारे घर से नष्ट करें । हमारे कृत पापों एवं
रोग की कारणभूत पिशाचिनी को दूर ले जाकर नष्ट करें ॥१ ॥
[ अमीवा रोग आँव-अपीबाइसिस को कहते हैं, विसूचिका हैजे को कहते हैं । यह दोनों पेट मे अत्न के ठीक से न पचने
के कारण पैदा होते हैं ।]
१८३२. सोमारुद्रा युवमेतान्यस्मद् विश्वा तनूषु भेषजानि धत्तम्।
अव स्यतं मुञ्चतं यन्नो असत् तनषु बद्धं कृतमेनो अस्मत् ॥२ ॥
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