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म॑०१ मुर १८० २७३

१८८८. न मृषा श्रान्तं यदवन्ति देवा विश्वा इत्स्पृधो अभ्यश्नवाव ।

जयावेदत्र शतनीथमाजिं यत्सम्यञ्चा मिथुनावभ्यजाव ॥३ ॥

(ऋषि अगस्त्य कहते हैं ~) हमारा (अब तक का) तप बेकार नहीं गया है ।देवता श्रेष्ठ प्रवृत्तियों के कारण

हमारी रक्षा करते रै (अतः) हमने विश्व कौ (जौवने में आने वाली) सारी स्पर्धाएँ जीत ली हैं । हम दम्पती यदि अब

उचित ढंग से संतान उत्पन्न करें, तो इस जीवन में सौ(वर्षों तक) संग्राम (जीवन की चुनौतियों) में विजयी होंगे ॥३ ॥

१८८९. नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित्‌ |

लोपामुद्रा वृषणं नी रिणाति धीरमधीरा थयति श्रसन्तम्‌ ॥४॥

लोपामुद्रा नदी के प्रवाह को सब ओर से रोक लेने वाले संयम से उत्पन्न शक्ति को संतान प्राप्ति की कामना

की ओर प्रेरित करती है । यह भाव इस (शारीरिक स्वभाव) अथवा उस (कर्तव्य बुद्धि) या किसी अन्य कारण से

और अधिक बढ़ता है । श्वास का संयम रखने वाते समर्थ धीर पुरुष अधीरता को नियंत्रण में रखते हैं ॥४ ॥

१८९०. इमं नु सोममन्तितो हत्सु पीतमुप ब्ुवे ।

यत्सीमागश्चकृमा तत्सु मृकतु पुलुकामो हि मर्त्यः ॥५ ॥

(इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद शिष्य के भाव है -) सोम (ओषधि रस विशेष) के निकर जाकर धावनापूरवंक

उसका पान करते हुए वह प्रार्थना करता है "मनुष्य अनेक प्रकार की कामनाओं वाला है । (उक्त संदर्भ पे) यदि

मेरे मन में कोई विकार आय हो, तो यह सोम अपने प्रभाव से उसे शुद्ध कर दे ॥५ ॥

१८९१. अगस्त्यः खनमानः खनित्रः प्रजामपत्यं बलमिच्छमान: ।

उभौ वर्णावृषिरुग्रः पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम ॥६ ॥

उप्र तपस्वी अगस्त्य ने खनित्र (शोध क्षमता) से खनन (नये -गये शोध कार्य) करते हुए, प्रजा (संतान) उत्पन्न

करने वाले तथा (तप द्वारा) शक्ति अर्जित करनेवाले, दोनों वर्णों (प्रवृत्तियो) वाले मनुष्यों का पोषण किया (और इस

प्रकार-) देवताओं के सच्चे आशीर्वाद को प्राप्त किया ॥६ ॥

[सूक्त - १८० ]

[ ऋषि- आगस्त्य मैत्रावरुणि । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द-त्रिष्टप्‌ ।]

१८९२ .युवो रजांसि सुयमासो अश्वा रथो यद्वा पर्यर्णांसि दीयत्‌ ।

हिरण्यया वां पवयः प्रुषायन्मध्वः पिबन्ता उषसः सचेथे ॥१ ॥

हे अश्विनीकुमारों जिस समय आप दोनों का रथ समुद्र मे अथवा अन्तरिक्ष में संचरित होता है, उस समय

आपके रथ को चलाने वाले अश्वसंज्ञक गति साधन भी अन्तरिक्ष मार्ग में नियमानुसार गति करते है । आपके रथ

के स्वर्णिम दीप्ति वाले पहिये भी मेघमण्डल के जल से भीगने लगते हैं; आप दोनों मधुर सोमरस का पान करके

प्रभात वेला में ही इकट्ठे होकर जाते हैं ॥१ ॥

१८९२. युवमत्यस्याव नक्षथो यद्विपत्मनो नर्यस्य प्रयज्योः ।

स्वसा यद्वां विश्वगूर्ती भराति वाजायेट्टे मधुपाविषे च ॥२ ॥

सर्वस्तुत्य तथा मधुर सोमपान कर्ता अश्विनीकुमारों ! आप दोनो निरन्तर गतिशौल, आकाश मे संचरण करने

वाले, मनुष्यों के कल्याणकारी, पूजनीय, सूर्यदेव के आगमन से पहले ही आते हैं, तब बहिन उषा आपका सहयोग

करती हैं और यज्ञ मे यजमान, बल तथा अत्र बढ़ाने के लिए आप दोनों कौ ही प्रशंसा करते हैं ॥२ ॥

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