अगस्त्य द्वारा श्रीकृष्ण प्रेमामृत स्तोत्र का कथम |] [.. २७७
ऋशभुहँसो5रुणिश्चेव वाल्मीकिः शक्तिरासुरि: ।
एतेऽन्ये च महासिद्धा वात्स्यायनमुखा द्विज ॥६
उपासत हयुपासीना ज्ञाचाथं फणिनायकम् ।
तं नमस्कृत्य नाग्रं : सह सिद्धैमंहात्मभिः ।\७ ¦
महामुनि वसिश्च जी ने कहा--उस सम्पूणं कारण को भली भति
समझ कर कुम्भ से समुत्पन्न अगस्त्य मुनि ने अपने मन परम प्रीति करके
भागेव रास से कहा था ।१। अगस्त्य मुत्ति ने कहा--हे परशुराम ! आप तो
महान् भाग वाले हैं । “मैं अब आपके हितः की-बांत कहता ह उसका आप
श्रवण कीजिए । जिनके द्वारा-आप बहुत ही शी क्र इस महामन्त्र की सिद्धि
की प्राप्ति कर लेंगे ।२। हे महती मति वाले ! यह भक्ति तीन प्रकार की
होती है । उस भक्ति के तीनों प्रकारों के लक्षणों का ज्ञान प्राप्त करके जो
मनुष्य फिर यत्न किया करता हैं वह बहुत ही शीघ्र पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर
लिया करता है ।३। एक बार मैं स्वयं भगवान् अनन्त देव के वर्णेन प्राप्त
करने की आकांक्षा से पाताल लोक में गया था जो कि परमानन्द के साथ
बड़े-बड़े नाग राजों से सुशोभित था ।४। है महाभाग ! यहाँ पर मैंने देखा
था कि चारों ओर बड़े-बड़े सिद्ध महापुरुष विराजमान थे । वहां सनकादिक
चारों महा सिद्ध-देवंधि नारद-गौतमं-जा ज॑ लि-क्तु-ऋभु-हँंस-अ रुणि-वाल्मी कि-
शक्ति-आसुरि प्रभृति सभी मुनीन्द्रणण और ऋषियों के समुदाय विद्यमान
थे | हे द्विज | ये सन और अन्य भी वात्स्यायन जिनमें प्रमुख ये महानु
सिद्धगण वहाँ पर बैठे हुए थे ।५-६। ये सभी वहाँ पर बडे हुए ज्ञान की पूर्ण
प्राप्ति के लिये फणि नायक शेषराज की उपासना कर रहे थे। वहाँ पर
बड़े-बड़े नागेन्द्र ओर महान् आत्मा वाले सिद्ध सभी विराजमान थे उन
सवके साथ फणीन्द्र नायक रेष महाराज की सेवा में मैंने बड़े आदर के
साथ प्रणिपात किया था ।७।
उपविष्टः कथास्तच्र श्युण्वानो वेष्णवीमु दा ।
येयं भूमिमेहाभाग भूतधात्रीस्वरूपिणी ॥॥८ ::
निविश्ट पुरतस्तस्य श्युण्वेत्ती ताः कथा: सदा ।
यद्यत्पृच्छतति सा भूमिः शेषं साक्षान्महीघरम् ।&
श्युण्वंति ऋषयः सर्वे तत्रस्थाः तदनुग्रहात् । |
मया तत्र श्रतं वत्स कृष्णः मामृतं शभम् ॥१० ,