अतिसर्गपर्व, तृतीय खण्ड ]
* राजा शालिवाहन तथा ईशामसीहकी कथा *
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भगवान् शंकते प्रत्यक्ष प्रकट होकर उनसे वर माँगनेको कहा ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--देव ! पाष्टवोकि जो
शख्वास्र आपके शरीरम लीन हो गये हैं, उन्हें पाण्डन्केको
वापस कर दीजिये और इन्हें शापसे भी मुक्त कर दीजिये।
श्रीशिवजीने कहा--श्रीकृष्णचन्द्र ! मैं आपको प्रणाम
करता हूँ। उस समय मैं आपकी मायासे मोहित हो गया था।
उस मायाके अधीन होकर मैंने यह शाप दे दिया। यद्यपि मेरा
वचन तो मिथ्या नहीं होगा तथापि ये पाण्डव तथा कौरव अपने
अंशोंसे कलियुगमे उत्पन्न होकर अंशतः अपने पापोंका फल
भोगकर मुक्त हो जायैंगे।
युधिष्ठिर वत्सराजका पुत्र होगा, उसका नाम बलखानि
(मलखान) होगा, यह शिरीष नगरका अधिपति होगा ।
भीमका नाम वीरण होगा और वह वनरसका गज्छ होगा।
अर्जुनके अंशसे जो जन्म लेगा, वह महान् वुद्धिमान् और मेरा
भक्त होगा। उसका जन्म परिमलके यहाँ होगा और नाम होगा
ब्रह्मानन्द । महायबलशाली नकुलका जन्म कान्यकुब्जमें
रत्रभानुके पुत्रके रूपमे होगा और नाम होगा लक्षण । सहदेव
भीमसिंहका पुत्र होगा और उसका नाम होगा देवसिंह।
धृतराष्ट्रके अंशसे अजमेरमे पृथ्वीराज जन्म लेगा और द्रौपदी
पृथ्वीराजकी कन्याके रूपे वेला नामसे प्रसिद्ध होगी ।
महादानी कर्णं तारक नामसे जन्म लेगा । उस समय रक्तबौजके
रूपमे पृथ्वीपर मेरा भी अवतार होगा । कैरव माया-युद्धमे
निष्णात होगे और पाष्डु-पक्षके योद्धा घार्मिक और
कलशाली होगि ।
सूतजी बोले-ऋषियो ! यह सब बातें सुनकर
श्रीकृष्ण मुस्कराये और उन्होंने कहा “मै भी अपनी शक्ति-
विरोषसे अवतार लेकर पाण्डवोकी सहायता करूँगा।
मायादेबीद्वारा निर्मित महावती नामकी पुरीम देशराजके
पुत्र-रूपमें मेय अंश उत्पन्न होगा, जो उदयसिंह (ऊदल)
कहलायेगा, वह देवकीके गर्भसे उत्पन्न होगा। मेरे वैकुण्ठ-
धामका अंश आह्वाद नामसे जन्म लेगा, वह मेरा गुरु होगा।
अग्रिवंशसे उत्पन्न राजाओंका विनाश कर मैं (श्रीकृष्ण--
उदयसिंह) धर्मकी स्थापना कहूँगा।' श्रीकृष्णकी यह बात
सुनकर शिवजी अन्तर्हित हो गये।
मी
सूतजीने कहा -- ऋषियो ! प्रातःकालमे पुत्रशोकसे
पीड़ित सभी पाण्डव प्रेतकार्यं कर पितामह भीष्पके पास
आये । उनसे उत्होंने राजधर्म, मोक्षधर्म और दानधमोकि
स्वरूपकौ अलग-अलग रूपसे भलीभांति समझा। तदनन्तर
उन्होंने उत्तम आचरणोंसे तीन अश्वमेध -यज्ञ किये । पाण्टवोनि
छत्तीस वर्षतक राज्य किया और अन्ते वे स्वर्ग चले गये ।
कलिधर्मकी वृद्धि होनेपर वे भी अपने अंशसे उत्पन्न होंगे।
अब आप सब मुनिगण अपने-अपने स्थानको पधार । मैं
योगनिद्रके वशीभूत हो रहा हुँ, अब मैं समाधिस्थ होकर
गुणातीत परब्रह्मका ध्यान करूँगा । यह सुनकर नैमिषारण्यवासी
मुनिगण यौगिक सिद्धिका अवलम्बन कर आत्मसामीप्यमें
स्थित हो गये । दीर्घकाल व्यतीत होनेपर शौनकादिमुनि ध्यानसे
उठकर पुनः सूतजीके पास पहुँचे ।
मुनियोंने पूछा--सूतजी महाराज ! विक्रमाख्यानका
तथा द्वापरमें शिवकी आज्ञासे होनेवाले राजाऑंका आप
वर्णन कीजिये।
सूतजी बोले- मुनियो ! विक्रमादित्यके स्वर्गलोक
चले जानेके बाद बहुतसे राजा हुए। पूर्वमे कपिल स्थानसे
पश्चिमे सिन्धु नदीतक, उत्तरमें बदरीक्षेत्रसे दक्षिणमें
सेतुबन्धतककी सीमावाले भारतवर्षमें उस समय अठारह राज्य
या प्रदेश थे। उनके नाम इस प्रकार है-- इन्द्रप्रस्थ, पाञ्चाल,
कुरुक्षेत्र, कम्पिल, अनत्तरवेदी, ब्रज, अजमेर, मरुधन्व
(मारवाड़), गुर्जर (गुजरात), महाराष्ट्र, द्रविड़
(तमिलनाडु), कलिंग (उड़ीसा), अवन्ती (उजैन), उडप
(आच), बैग, गौड़, मागध तथा कौशल्य । इन राज्योंपर
अलग-अलग राजाओनि शासन किया । वहाँकी भाषाएँ भित्र-
भिन्न रहीं और समय-समयपर विभिन्न धर्म-प्रचारक भी हुए ।
एक सौ वर्ष व्यतीत हो जानेपर धर्मका विनाश सुनकर शक
आदि विदेशी राजा अनेक लोगोंके साथ सिन्धु नदीकों पारकर
आयदेशमे आये और कुछ लोग हिमालयके हिममार्गसे यहाँ
आये । उन्होनि आयोौको जीतकर उनका घन लूट लिया और
अपने देशम लौट गये । इसी समय विक्रमादित्यका पौत्र राजा