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ऋत्विजोनि कहा--पृज्यतम ! हम आपके अनुगत
भक्त हैं, आप हमारे पुनः-पुनः पूजनीय है । किन्तु हम
आपकी पूजा करना क्या जाने ? हम तो बार-बार आपको
नमस्कार करते है--इतना ही हमे महापुरुषोनि सिखाया
है। आप प्रकृति और पुरुषसे भी परे है । फिर प्राकृत
गुणोके कार्यभूत इस प्रपञ्ञमें बुद्धि फैंस जानेसे आपके
गुण-गानमें सर्वधा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत
नाम, रूप एवं आकृतिके द्वारा आपके स्वरूपका निरूपण
कर सके ? आप साक्षात् परमेश्वर हैं ॥ ४ ॥ आपके परम
मद्गलमय गुण सम्पूर्ण जनताके दुःखोंका दमन करनेवाले
हैं। यदि कोई उन्हें वर्णन करनेका साहस भी करेगा, तो
केवल उनके एकदेशका ही वर्णन कर सकेगा ॥ ५॥
किन्तु प्रभो ! यदि आपके भक्त प्रेम-गद्गद वाणीसे स्तुति
करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी
दूबके अङ्क आदि सामग्रीसे हो आपको पूजा करते हैं, तो
भी आप सब प्रकार सनतषट हो जाते है ॥ ६॥
हमें तो अनुरागके सिवा इस द्रव्य-कालदि अनेकों
अज्जॉबाले यज्ञसे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी
देता; ॥ ७॥ क्योकि आपसे स्वतः ही क्षण-क्षणमें जो
सम्पूर्ण पुरुषा्थौका फलस्वरूप परमानन्द स्वभावतः हो
निरन्तर प्रादुर्भूत होता रहता है, आप साक्षात् उसके स्वरूप
ही है । इस प्रकार यद्यपि आपको इन यज्ञादिमे कोई
प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकारकी कामनाओंकी
सिद्धि चाहनेवाले हेमलोगोकि लिये तो मनोरथसिद्धिका
पर्याप्त साधन यही होना चाहिये ॥ ८ ॥ आप ब्रह्मादि परम
पुरुषोंकी अपेक्षा भी परम शष्ठ हैं। हम तो यह भी नहीं
जानते कि हमारा परम कल्याण किसमें है, ओर न हमसे
आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार
तत््वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भौ केवल करुणावश अज्ञानी
पुरुषोकि पास चले जाते हैं, उसी प्रकार आप भी हमे
मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी अभीष्ट वस्तुएँ,
प्रदान करनेके लिये अन्य साधारण यज्ञदर्शकोकि समान
यहाँ प्रकर हुए है ॥ ९ ॥ पूज्यतम ! हमें सबसे चड़ा वर
तो आपने यही दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकोमें
श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षिं नाधिकी इस यज्ञशालामें
साक्षात् हमारे नेत्रोंके सामने प्रकट हो गये। अब
हम और वर क्वा माँगें ? ॥ १० ॥
*पश्चम स्कध +
प्रभो ! आपके गुणगर्णोका गान परम मङ्गलमय है।
जिन्होंने वैराग्यसे प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्निके द्वार अपने
अन्तःकरणके राग -द्ेषादि सम्पूर्ण मलॉको जला डाला है,
अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त है, वे
आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणोंका गान
ही किया करते हैं॥ ११५॥ अतः हम आपसे यही वर
माँगते हैं कि गिरने, झोकर खाने, छींकने अथवा जैंभाई
लेने और सङ्कटादिके समय एवं ज्वर और मरणादिकी
अवस्थाओपिं आपका स्मरण न हो सकनेपर भी किसी
प्रकार आपके सकलकलिमलविनाशक '“भक्तवत्सल',
'दीनबन्धु' आदि गुणद्योतक नामोंका हम उच्चारण
कर सके ॥ १२ ॥
इसके सिवा, कहनेयोग्य न होनेपर भी एक प्रार्थना
और और है। आप साक्षात् परमेश्वर हैं; स्वर्ग-अपवर्ग आदि
ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सक । तथापि जैसे
कोई कंगाल किसी धन लुटानेवाले परम उदार पुरुषके
पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे
यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तानकों ही परम पुरुषार्थ
मानकर आपके ही समान पुत्र पानेके लिये आपकी
आराधना कर रहे हैं॥ १३॥ यह कोई आश्चर्यकी बात
नहीं है। आपकी मायाका पार कोई नहीं पा सकता और
न वह क्रिसीके वशम ही आ सकती है। जिन लोगोंने
महापुरुषोंके चरणोंक्ा आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन
है जो उसके वशमें नहीं होता, उसकी बुद्धिपर उसका
परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विषका वेग उसके
स्वभावको दूषित नहीं कर देता 2॥ १४ ॥ देवदेव ! आप
भक्तोकि बड़े-बड़े काप कर देते हैं। हम मन्दपतियोंने
कामनावश इस तुच्छ कार्यके लिये आपका आवाहन
किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप
समदर्शी हैं, अतः हम अज्ञानियोंकी इस धृष्टताको
आप क्षमा करें ॥ १५॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं--राजन् ! वर्षाधिपति
नाभिके पूज्य ऋत्विजोने प्रभुके चरणोंको वन्दना करके
जब, पूर्वोक्त स्तोत्रस स्तुति की, तब देवश्रेश्च श्रीहरिने
करुणावश इस प्रकार कहा ॥ १६॥
श्रीभगवानने कहा--ऋषियों ! बड़े असमंजसकी
बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे